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________________ १२१ पदोंका तुलनात्मक विवेचन 'भोग रोग को करत हैं, इनकी मत लावै । ममता तजि समता गहौ, 'बुधजन' सुख पावै ॥ क्यो रेमन तिरपत नहिं कोय । अनादि काल का विपयन राच्या, अपना सरबस खोय ॥ 'नेकु चाख कै फिर न बाहुडे, भधिका लपटै जोय । ज्यों ज्यो भोग मिलै त्यो तृष्णा, अधिकी अधिकी होय ॥ मन रे तेने जन्म भकारय खोयो। तू ढोलत नित जगत धंध में, ले विपयन रस लूट्यो ।। इस प्रकार जैन कवियोने आशाके निन्ध रूपकी विवेचना सूरदास के समान ही की है। वस्तुतः आशा इतनी प्रचण्ड अमि है कि इसमे जीवनका सर्वस्व स्वाहा हो जाता है। जैन कवियोंने इसी कारण मनकी विविध दशाओका विवेचन सूक्ष्म स्पसे किया है। महाकवि तुल्सीदासके पटोकी प्रसिद्धि भी हिन्दी साहित्यमें अत्यधिक है । इन्होंने बुद्धिवादके साथ हृदयवादका भी समन्वय किया है। इनके आध्यात्मिक और विनय-विषयक पदोका सकल्न विनयपत्रिकामे है। इनके मतसे अन्तस्की शुद्धिके लिए भक्ति आवश्यक है, इसके लिए प्रमु-कृपा होनी चाहिये। ___ भक्तिके लिए दो बातें आवश्यक है-प्रथम आराध्यकी अपार वैभवशालीनता, शक्तिपूर्णता और सर्वगुणसम्पन्नताका अनुभव और द्वितीय अपनी तुच्छता, आत्मग्लानि, दीनता और असमर्थताका प्रदर्शन सच्चे भक्त अपनी दीनता या असमर्थता प्रदर्शित करनेमे अधिक
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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