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हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन
जिस परिस्थितिमे ससीम आत्मा विश्वके सौन्दर्यम असीम परमात्माकै चिर सुन्दर रूपका दर्शन कर उससे तादात्म्य स्थापन करनेके लिए आकुल हो उठती है, उस स्थितिका चित्रण आध्यात्मिक जैनपढोंसे ग्रहण किया गया प्रतीत होता है। महादेवी वर्माके चिन्तनपरक और भक्तिपरक गीताकी भावसरणी रूप-सौन्दर्य और भावनाओके गाम्भीर्यकी दृष्टिसे महाकवि बनारसीदास के पदोसे प्रभावित प्रतीत होती है। दोनो कलाकारोके अन्तस्मै दार्शनिक सिद्धान्तकी भावधारा एक-सी ही है। महादेवी वर्मा अव्यक्त सत्ताका अपने भीतर अनुभव करती हुई बुद्विका विकास और भावनाका परिकार कर कहती हैं
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सखी मैं हूँ अमर सुहाग भरी ! प्रियके अनन्त अनुराग भरी ' किसको त्यागूँ किसको माँगूँ ; है एक मुझे मधुमय चिपमय; मेरे पद छूते ही होते, कोटे कलियाँ प्रस्तर रसमय । पार्टी नग का अभिशाप कहाँ, प्रतिरोमोंमें पुलकें लहरीं ।
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fir चिन्तन है सजनि
क्षण क्षण नवीन सुहागिनी मैं ।
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प्रिय सांध्य गगन,
मेरा जीवन !
कवि वनारसीदास भी आत्माकी रहस्यमयी प्रवृत्तियोका उद्घाटन करते हुए कहते हैं—