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पदोंका तुलनात्मक विवेचन
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बालम तुहु वन चितवन गागरि फूटी। अचरा गौ फहराय सरम गै छूटी ॥ बालमः । हूँ तिक रहूँ जे सजनी रजनी घोर । घर करकेउ न जानै पहुँदिसि चोर ॥ बालम। पिड सुधियावत वनमें पैसिट पेलि। छाडठ राज डगरिया भयउ अलि ॥ बालम० । संवरौ सारददामिनि और गुरु भान । कछु बलमा परमारथ कहीं बखान ॥ बालम०॥
या चेतनकी सब सुधि गई। व्यापत मोहि विकलता भई।
पिउ निरन्तर रहत सजनि ।
विपय महारस चेतन विष समवल।
छाडहु वेगि विचार पापतरु मूल ॥ कवि प्रसादके अनेक रहस्यवादी दार्शनिक गीतोपर जैनपदोकी भावसरणीका प्रभाव स्पष्ट प्रतीत होता है। कवि प्रसाद कहता है कि जीव वृद्धावस्था और मृत्युके भयसे सदा दुःखी रहता है। जीवनमें जितने परिवर्तन होते आ रहे हैं, उनकी कोई सीमा नहीं है। जीवनमें अमरता स्वानुभूतिको प्राप्त करना ही है। विश्वका अणु-अणु परिवर्तनकी ओर अग्रसर हो रहा है, परिवर्तन ही जीवनका एक सत्य सिद्धान्त है । अमर आत्मामें भी शाश्वत परिवर्चन होता है । यह जीवात्मा शुद्ध होनेके लिए प्रतिक्षण प्रयत्नशील है।