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१२६ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन
मानव जीवन अनेक तृष्णा और आकाक्षाओंका केन्द्र है । हृदयम अनेक प्रकारकी लालसाऍ वरावर उठती रहती है। जैसे पहाड़की चोटियोंसे बादल टकराते हैं, उसी प्रकार अनेक इच्छाएँ जीवनके कगारोंसे टकराती रहती है। बादलोंके बरसनेसे नदी प्रवाहित होती है
और पहाड़ी भूमिमै हाहाकार गुरु गर्जन करती हुई तरंगायित हो आगे बढ़ती है, ठीक इसी प्रकार वेदना-परिपूर्ण ऑसुयोर्क वरसनेसे नाना प्रकारकी वृत्तियों जाग्रत होती है । कवि प्रसाद जीवनके व्यर्थ बीतने पर पश्चात्ताप करता हुआ कहता है
सव जीवन वीता जाता है, धूप छाँह के खेल सदृश । सव० । समय भागता है प्रतिक्षण में, नव-अतीत के तुपारकण में, हमें लगाकर भविष्य रण में,
आप कहाँ छिप जाता है । सवः । कवि द्यानतरायने भी जीवन के यों ही बीतने पर पश्चात्ताप प्रकट किया है।
जीधन यों ही जाता है। बालपने में ज्ञान न पायो, खेलि खेलि सुख पाया है। समय निकलता है प्रतिक्षण ही, मूरख मदमें सोया है। धूप-चाँदनी झिलमिल करती, ले आशाओं का घेरा है। धनि चेतन तू जाग आज रे, मूरख रैन बसेरा है।
कवि प्रसादका चिरकालीन अशान्ति-चित्रण, जिसमे जीवनके सुखदुख, हर्प-विपाद, आशा-निराशाकी भावनाओंका मार्मिक चित्रण