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________________ १५० हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन चर्चाओं और वार्ताओंके श्रवण, पटन एवं चिन्तनमें सदा आगे रहता है, जिससे यह ठग अपना अवसर पाकर आत्मिक शक्तिको चुपचाप ही अपहृत कर लेता है तथा जीवन अशान्त हो जाता है । यौन प्रवृत्तिको प्रोत्साहन भी इसी ठग द्वारा मिलता है। जीवन-मार्गका छठवाँ पाकिटमार है कौनहल | इसकी माया अपार है, निघर अपूर्व और रमणीय वस्तु दिखलायी पड़ती है, उधर भी यह पहुँच जाता है । कोमट, मुनहली और उनकी आशा-किरणें जीवन के मार्गम मनमोहक और आकर्षक हृभ्य उपस्थितकर एकान्त और निर्जन धानके ग्वेतामें ले जाती हैं; नहीं जीवात्माके रत्रत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको बलपूर्वक लूट लिया जाता है । यद्यपि इस मार्ग में शीतलजल्के सत्रों स्रोत रम वर्षा करते हैं, परन्तु है यह खतरनाक । सातवाँ डाकु कोप है। इस अग्निमें अधिक उष्णता, दाहकता और भन्मसात् करनेकी शक्ति निहित है । जीवनमें कालरात्रिका आगमन इस डाकूकी कृपाका ही फल है । दया और स्नेह, जिनसे जीवनमें सरसता आती है, हृदय कंजॉपर अनुराग मकरन्द बिखरने लगता है एवं नाना भाव रुपी वृक्षोंपर आच्छादित हिमके पिघल जानेसे जीवनकी जड़ी-बूटियाँ जागरणको प्राप्त करती हैं, यह डाकू उन्हें देखते-देखते ही चुरा लेता है । इसी कारण इसे पव्यतोहर कहा गया है। ज्ञान और अमाके साथ इसका भीषण युद्ध भी होता है। दोनोंकी सेनाएं सजती हैं, युद्ध-वाद्य बजते हैं, तथा अपनी-अपनी ओरसे युद्ध कौशलका पूरा-पूरा प्रदर्शन किया जाता है | यह विद्रोही रत्नत्रयको लेनेके लिए नाना उपाय करता है, इसको परास्त करना साधारण गत नहीं है। श्री महावीर हैं, इन्द्रियजयी हैं, संयमी है और जिन्होंने प्रलोभनोंको जीत लिया है, वे ही इसे परान्त करनेकी क्षमता रखते हैं । जीवनमें उच्छृङ्खलता और अव्यवस्था इसकी देन हैं । आठवाँ ठग है कृपणबुद्धि । समस्त वस्तुओंको ले लेनेका टोम करना
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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