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________________ आध्यात्मिक रूपक काव्य १५. ही आत्मोत्थानका बाधक है। विश्वकै मनमोहक पदार्थ इस प्राणीको अपनी ओर खींचते हैं। प्रलोभनोपर विजय प्राप्त किये बिना व्यक्तित्वका विकास नहीं हो सकता है । वस्तुतः वासना और सयमके उचित अनुपातसे ही जीवन अभ्युदयकी ओर बढ़ता है। प्रलोभनोंके मनमोहक दृश्य मानव मनको उलझाये बिना नहीं रह सकते । कृपणबुद्धि तो सर्वदा ही छोटे-बड़े सभी प्रकारके प्रोमनोंमे ममत्व करती है, जिससे धर्मका नाश होता है। रत्नत्रय-धर्मका विघातक यह ठग है। आजतक इस ठगने कितने ही व्यक्तियोकी हत्या कराई, कितने ही देवायतनोंको दूषित कराया और कितने ही निरपराधियोको मौतके घाट उतारा । सासारिक सौन्दर्य का मूल्य इसी मापदण्डसे निर्धारित किया गया। एक-एक पैसेके लिए पाप किये, अनाचार किये, झूठ बोलग, चोरी की और न मालम क्याक्या नहीं किया । सब इसी ठगने तो कराया, आत्माकी शक्तिको मुख्य रूपमें इसने विकृत किया। नौवॉ ठग है अशान, जिसने प्रकाशमान भास्करके ऊपर घने अन्धकारका आवरण डाल दिया है। इसके रहनेसे जीवन-पथ बिल्कुल अरक्षित है। यह अकेला नहीं रहता है, इसकी सेना बहुत बड़ी है। यद्यपि यह अपने दलका मुखिया है, परन्तु अन्य ठग भी बडे ही शक्तिशाली हैं । सयमसे यह डरता है, उसके धनुषकी टकार सुनते ही इसके कान बधिर और ऑखे अन्धी बन जाती हैं। धर्मरत्नकी सुरक्षाके लिए इस ठगको भगाना ही पडेगा। इसके साथ सन्धि करनेसे काम नहीं चल सकेगा। दसवॉ ठग भ्रम है, इससे सारी शक्तियोको ही चुरा लिया है । यह अहर्निश वसन्त वैमव और ओस मोतीकी माला लिये भावना वैभवकी सृष्टि करता है । जीवनको ठोस सत्यके धरातलसे पृथक्कर किसी भयकर सागरमे डुबाना चाहता है। शुद्ध, निर्मल और ज्ञानरूप आत्माको शरीर आदि जड़ पदायॉमें समझता है।
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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