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हिन्दी-जैन-गीतिकाव्य
दूर दिशावर चलत आपही, कोउ न रोकन हारो। कोक प्रीति करो किन कोटिक, अन्त होयगो न्यारो॥ धन सौ राचि धरम सौ भूलत, झूलत मोह मंझारो। इहि विधि काल अनन्त गमायो, पायो नहिं भव पारो॥ साँचें सुखसों विमुख होत हो, भ्रम मदिरा मतवारो। चेतहु चेत सुनहु रे भइया, आप ही आप सॅभारो॥
जैन पदोंमें गीतिकाव्यकी दूसरी विशेषता आत्मनिष्ठा भी पायी जाती है। अन्तर्दर्शन द्वारा आत्मनिष्ठाकी भावना वैयक्तिक सुख, दुःख, हर्ष, जैन-पदोंमें है शोक, राग, द्वेष एव हात्य अश्रुके गीत गाती है।
इन पदोमें आत्म-भावनाकी अभिव्यञ्जना इतनी प्रबल आत्मनिष्ठा और वैयक्तिता
है, जिससे इनका आधार अधिकरण-निष्ठताको माना
जा सकता है। कल्पनाशील भावुक कवि केवल वाह्य वस्तुओंसे ही प्रभावित नहीं होता, केवल सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक कारण ही उसे क्षुब्ध नहीं करते, बल्कि वह आन्तरिक कारणोसे भी क्षुब्ध और प्रताडित होता है। जैन पट रचनेवाले सभी कवियोने अपने अन्तर्तमसे प्रेरणा प्राप्त की, वे वाह्य संसारसे अनासक्त है । चर्म-चक्षुओके स्थानपर उनके मानस-चक्षु उद्बुद्ध है। उन्होने अपनी भावनाओंको विश्वजनीन बनानेके लिए वैयक्तिक भाव और चेतनाको आदर्श एव भावात्मक रूप प्रदान किया है । आत्म-चेतनाकी जाग्रति इन पदोंका प्राण और ल्यपूर्ण भाषामें आत्मानुभूतिकी अभिव्यक्ति इनका उद्देश्य है । कविवर वुधजनने निम्नपदमे कितनी गहरी आत्मानुभूतिका परिचय दिया है, इनकी अन्ताला धू-धूकर जल रही है। कविके आकुल प्राण शान्तिप्रासिके लिए छटपटा रहे है, अतः कवि आत्म-विभोर हो कहता है
हो मना जी, थारी बानि, बुरी छै दुखदाई पटेका निज कारिज ने न लागत, परसौ प्रीति लगाई ॥ हो ।