________________
७८
हिन्दी - जैन साहित्य- परिशीलन
या सुभावसौं अति दुख पायो, सो अब त्यागो भाई ॥ हो० ॥२॥ 'बुधजन' ओसर भाग न पायो, सेवो श्री जिनराई ॥ हो० ॥३॥
जहाँ हम कवि भागचन्दके पटोंमे अन्तर्दहनके साथ गाम्भीर्य पाते हैं। वहाँ कवि बनारसीदास के पदोके प्रबल वेग, अन्तस्के शोधनकी क्षमता और स्वस्थ व्यजना पाते है । आध्यात्मिक शान्ति प्राप्ति के लिए कवि दौलतरामने कोमल-कान्त- पदावलीमे अपनी कमनीय अनुभूतियों की मार्मिक अभिव्यञ्जना की है । कवि अन्तस्मै गुनगुनाता हुआ गा उठता है
पारस जिन चरण निरख, हरख यो लहायो, चितवत चन्दा चकोर ज्यों प्रमोद पायो ॥
ज्यों सुन घनघोर शोर, मोर हर्पको न ओर, रंक निधि समाजराज पाय मुदित थायो ॥ पारस ० ॥ ज्योंजन थिरक्षुधित होय, भोजन लखि सुखित होय, भेपन गदहरण पाय, सरुज सुहरखायो ॥ पारस ० ॥ वासर भयो धन्य आज, दुरित दूर परे भाज, शान्तदशा देख महा, मोहतम पलायो ॥ पारस जिन० ॥ भानन भवकानन इम,
शिव
'सुख ' ललचायो ॥ पारस जिन० ॥
जाके गुन जानत जिम, जान 'दौल' शरन आय,
इन पक्तियोंमें आत्मनिवेदनकी भावना तीव्र और गम्भीर है । प्रभुभक्तिका जलप्रवाह सारी चेतनाओंको धो देता है, जानका बॉध टूट जाता है और प्रबल वेगमे जीवन प्रवाहित होने लगता है तथा अपने आराध्य के निकट पहुँचकर शान्तिलाभ करता है । कविकी यह अनुभूति ऐन्द्रियक नही, इन्द्रियातीत है ।
गीतिकाव्यका तीसरा तत्व भाव और अभिव्यञ्जनाके समन्वयमे अनुभूतिकी अन्विति है । इसके बिना न तो सवेदनशीलता रहती है और न उससे उत्तेजना प्राप्त होती है । जीवनमे ऐसे कम ही क्षण आते हैं, जब