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हिन्दी-जैन-गीतिकाव्य मानवकी वृत्ति अन्तमुखी होती है। मानसिक प्रतिक्रियाएँ सामाजिक
आधार रखकर गतिशीलता ग्रहण करती हैं । सहसा समन्वित
दीत हो उठनेवाले क्षणोंमें सवेदनशीलता गतिमान अभिव्यक्ति नहीं हो सकती । जिस प्रकार रेखाचित्रमे एक रेखाके अभावमें चित्र अधूरा रह जाता है और एक रेखा अधिक होनेसे चित्र विकृत हो जाता है उसी प्रकार अनुभूतिकी अभिव्यजनामे मी हीनाधिकता होनेपर विकृति आती है, अतः अभिव्य जनामें अत्यन्त सावधानी रखनी पडती है। जैनपदोमे अनुमतिकै सकेतोंका सन्तुलन है, अतः रूपहीनता अथवा विरूपताके चित्रोंका प्रायः अभाव है। कविवर बनारसीदासके निम्न पदमे अनुभूति और सकेतोंका सन्तुलन दर्शनीय है
चेतन तू तिहुँकाल अकेला। नदी नाव संमोग मिलै ज्यों, त्यों कुटुम्बका मेला ॥ चेतन० ॥ यह संसार अपार रूप सब, ज्यों पट पेखन खेला। सुखसम्पति शरीर जल बुदबुद, विनशत नाही बेला । चेतन० ॥n मोहमगन आतमगुन भूलत, परी सोहि गलजेला ॥ मैं मैं करत चहूँ गति डोलत, बोलत जैसे छेला ॥चेतन०॥२॥ कहत 'बनारसि' मिथ्यामत तजि, होय सुगुरुका चेला । तास वचन परतीत आन जिय, होइ सहज सुरझेला ॥चेतन०॥३॥
कविवर भूधरदासजीने ससारकी असारता दिखाते हुए अपनी आन्तरिक भावनाओंको वडे ही सुन्दर ढगसे अमिव्यक्त किया है। कवि कहता है
जगमें जीवन थोरा, रे भज्ञानी जागि टेका जनम ताड तरु से पड़े, फल संसारी जीव । मौत मही में आयहैं, और न और सदीय ॥जगमें॥३॥ गिर-सिर दिवला जोइया, बहु दिशि वाजै पौन । बलत अचमा मानिया, बुझत अचम्भा कौन जगम ॥२॥