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________________ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन सुमर सदा मन आतमराम, सुमर सदा मन आतमराम ॥टेक॥ स्वजन कुटुम्बी जन तू पोपे, तिनको होय सदैव गुलाम । सो तो हैं स्वारथके साथी, अन्तकाल नहिं आवत काम ॥ सुमर सदा० ॥१॥ जिमि मरीचिका मृग भटकै, परत सो जब प्रीपम अतिघाम । तैसे तू भव माही भटकै, धरत न इक छिन हू विसराम ।। सुमर सदा ॥२॥ करत न ग्लानि अवै भोगनिम, धरत न वीतराग परिनाम । फिरि किमि नरक माहि दुख सहसी, नह सुखलेश न आ जाम ।। सुमर० ॥३॥ तातें आकुलता अब तनिक, थिर है बैठो अपने धाम । 'भागचन्द' बसि ज्ञान-नगरम, तजि रागादिक ठग सब ग्राम ॥ सुमर सदा० ॥टेक। 'सुमर सदा मन आतम राम' में कविने अनेक अशोमै रेखाचित्रकी भॉति कतिपय शब्दरेखाओ-द्वारा ही भावनाको अभिव्यञ्जना की है। सगीतके मौन-सौन्दर्यके साथ कल-कल ध्वनि करती हुई भावधारा मानवमनको स्वच्छ करनेमे कम सहायक नहीं है। मैया भगवतीदासके पदोमे भी सगीतका निखरा स्वरूप मिलता है । राग-रागनियोका समन्वय भी प्रत्येक पदमें विद्यमान है। शरीरको परदेशीका रूपक देकर वास्तविकताका प्रदर्शन किस माधुर्यके साथ किया गया है, यह देखते ही बनता है। कविने कुशल कलाकारकी तरह मीनाकारी और पञ्चीकारी की है ____ कहा परदेशीको पतियारो। मनमाने तब चलै पंथको, साँझ गिनै न सकारो। सधै कुटुम्ब छाँद इतही पुनि, त्याग चलै तन प्यारो॥
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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