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हिन्दी-जैन-गीतिकाव्य
मनिमय नूपुरादि भूपनदुति, यव सुरंग पटवा । हरिकर नखन नखन पैसुरतिय, पग फेरत क्टवा चलि सखि०॥२॥ किन्नर कर धर वीन वजावत, लावत लय झटवा । दौलत ताहि लखें चख तृपते, सूक्षत शिषबटवा चलि सखि०॥३॥
कविवर बुधजनने भी विलावल रागको धीमी तालपर कितने सुन्दर ढगसे गाया है। इस पदमे माषाकी तड़क-भड़क और चमक दमक ही नहीं, किन्तु छन्द और ल्यका सामजस्य मानव अन्तर्रागको उवुद्ध करनेमें समर्थ है। ससारके वाह्य रूपपर मुग्ध व्यक्तिको सजग करनेके लिए तथा वासनामे फंसे व्यक्तिको सावधान होनेके लिए कहा है कि इस भवको प्रासकर कौडीके मोल न बहाओ। कवि कहता है
नरभव पाय फेरि दुख भरना, ऐसा कान न करना हो ।टेका नाहक ममतानि पुदलसौं, करम-जाल क्यों परना होगटेक॥ यह तो नह ज्ञान भरूपी, तिल-तुप ज्यों गुरु वरना हो। राग-दोस तजि भजि समताको, करम साथके हरना हो।
नरभवः ॥टेका यो भव पाय विसय-सुख सेना, गज चदि ईधन ढोना हो। 'बुधजन' समुक्षि सेय जिनवर-पद, ज्यो भव-सागर वरना हो।
नरभव०॥ ससारकी स्वार्थपरतासे भयभीत होकर कविवर मागचन्दने राग विलावलम संगीतकी तान छोडते हुए अन्ततमकी अभिलाषा अभिव्यक्त की है। कवि कहता है कि सभी पुरजन-परिनन स्वार्थके साथी हैं। अन्त समय कोई काम नहीं आता; जिस प्रकार हिरण मृगमरीचिकाके प्रलोमनसे आकृष्ट होकर नाना कट सहन करता है उसी प्रकार यह जीव भी ससार रूपी वनमे निरन्तर कपाय और वासनाओंसे अभिभूत होकर भटकता रहता है। गरीरमोगोसे जबतक विरक्ति नहीं होती; शान्ति नहीं मिलती