________________
हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन
२ - किसी एक भावना या किसी रागात्मिका अनुभूतिकी कलापूर्ण
समन्वित अभिव्यक्ति ।
७४
३ - आत्मदर्शन और आत्मनिष्ठा ।
४ --- वैयक्तिक अनुभूतिकी गहराई ।
गीत या पटो गेयताका रहना आवश्यक है। इसका आधार शब्द, अर्थ, चेतना और रसात्मकता है। शब्द जहाँ पाठकको अर्थकी भाव
जैन पदोमें
संगीतात्मकता
भूमिपर ले जाते हैं, वहाँ नादके द्वारा श्रव्य मूर्त विधान भी करते है । शब्दोंका महत्त्व उनके द्वारा प्रस्तुत मानसिक चित्र और ज्ञापित वस्तुकै सामञ्जस्यमे है । जिस वस्तुको चर्मचक्षुओसे नहीं देखा है, उसका भी कल्पना-द्वारी मानस-चक्षुओके सामने ऐसा चित्र प्रसूत होता है, जो अपने सौन्दर्यक स्रोतमे मानवके अन्तस्को डुबा देता है। जैनपदोमे स्वाभाविक गीतधाराका अक्षुण्ण प्रवाह है, उनमे अतलस्पर्गिनी क्षमता है । बनारसीदास, दौलतराम, बुधजन और भागचन्दके पदोमे मुक्त संगीतकी धारा स्वच्छन्द और निर्वाध रूपसे प्रवाहित है । यो तो श्र ेष्ठ पदोका सौन्दर्य सगीतमे नहीं, भावात्मकतामे होता है। अकुश रूपये रहनेवाला संगीत सौन्दर्यकी विकृतिमे साधन बनता है । संगीतका अनुबन्ध रहनेपर भी जैनपढोमे जो मार्मिकता और स्नेहपिच्छल रसधारा है, उसका समाहित प्रभाव मानवीय वृत्तिपर पड़े बिना नही रह सकता । प्रभातराग, रामकली, ललित, बिलावल, अलहिया, आसावरी, टोरी सारग, लूहरि सारंग, पूर्वी एकताल, कनड़ी, ईमन, झंझोटी, खंभाच, केदार, सोरठा, बिहाग, मालकोस, परज, कलिंगड़ो, भैरवी, धनासरी, मल्हार आदि राग-रागनियों इन पदोमें व्यक्त हैं । कवि दौलतरामके निम्न पदमें नाट सौन्दर्यके साथ स्वर और तालका समन्वय सगीतके मूर्तरूपको भी मुखरित करता है -
चलि सखि देखन नाभिरायघर नाचत हरिनटवा ॥ टेक ॥
अद्भुत ताल मान शुभलय युत चवत रागपटवा ॥ चलि सखि ० ॥ १ ॥