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________________ द्वितीयाध्याय हिन्दी-जैन-गीतिकाव्य और उसकी इतर गीतिकाव्यसे तुलना कविता जीवनका अन्तर्दर्शन और रागामिका अभिव्यक्ति है। सुखदुःखानुभूति मानवमें ही नहीं, पशु-पक्षियोमे भी पायी जाती है। वाणी या अन्य माध्यमो द्वारा मनुष्यने अपनी अनुभूतियोंकी अभिव्यक्तिको स्थायित्व प्रदान किया है । गीतिकाव्योम भावनाकी अनुभूति अधिक गहरी होती है। मिलन-विरह, हर्प-शोक और आनन्द-विषादका चित्र सीमित रूपमे गेयता-द्वारा गीतिकाव्यमें उपस्थित किया जाता है। इसमे छन्द और रागविशेष-द्वारा आत्मनिष्ठता, आत्मानुभूति एव भाव-प्रकाशन किया है। हिन्दी-जैन साहित्यमे गीतिकान्यका महत्त्वपूर्ण स्थान है। अपभ्रश भाषामे भी जैन कवियोंने अनेक सरस गीत लिखे हैं, जिनमें प्रेम, विरह, विवाह, युद्ध और अध्यात्म-भावनाकी अभिव्यञ्जना सुन्दर हुई है । संगीत और लयके सहारे ये गीत गानेके लिए रचे गये है। परवर्ती हिन्दी-जैन-साहित्यमें लावनी, भजन, पद आदिके रूपमे विपुल गीतात्मक साहित्य पाया जाता है। विषयकी दृष्टिसे अध्यात्म, नीति, आचार, वैराग्य, भक्ति, स्वकर्तव्य-निरूपण, आत्मतत्त्वकी प्रेयता और शृङ्गार भेदोमे विभक्त किया जा सकता है। प्रायः सभी पदोमे आस्मालोचनके साथ मन, शरीर और इन्द्रियोकी स्वाभाविक प्रवृत्तिका निरूपण कर मानवको सावधान किया है। गीतिकाव्यकै निम्न सिद्धान्तो के आधारपर जैनपर्दोका विश्लेषण किया जायगा। १-संगीतात्मकता।
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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