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________________ आध्यात्मिक रूपक कान्य १६९ है। बताया गया है कि एक सुरम्य उद्यानमें एक दिन एक मुनिराज न वा धमोपदेश दे रहे थे। उनकी धर्मदेशनाका श्रवण करनेके लिए अनेक व्यक्ति एकत्रित थे। सभामे नाना प्रकारकी शकाएँ की जाने लगी । एक व्यक्तिने मुनिराजसे पूछा"प्रभो । पञ्चन्द्रियों के विषय सुखकर है या दुखकर।" मुनिराज-"ये पञ्चेन्द्रियाँ बड़ी दुष्ट हैं, इनका नितना ही पोषण किया जाता है, दुःख देती हैं। ___एक विद्याधर वीचमे ही इन्द्रियोका पक्ष लेकर बोला-"महाराज इन्द्रियाँ दुष्ट नही है। इनकी बात इन्हीके मुखसे सुनिये, ये प्राणियोंको कितना सुख देती हैं।" ___ मुनिराज-"इन्द्रियाँ मेरे सामने प्रस्तुत हैं। मै आश देता हूँ कि जो इनमे प्रधान हो, वह अपनी महत्ता बतलाये।" मुनिराजके इन वचनोको सुनकर सबसे पहले नाक अपनेको बड़ा सिद्ध करती हुई बोली-"मेरे समान महान् ससारमे कौन है ? नाकके लिए राजा-महाराजा, गरीब-अमीर सभी कष्ट सहन करते हैं। नाक रखनेके लिए ही तो बाहुबलीने दीक्षा धारण की, रामने वन-वन भ्रमण किया, सती सीताने अग्निमे प्रवेश किया, द्रौपदी सोमा आदिने अनेक कष्ट सहन किये और कितने ही साधु बनकर दर-दरके भिखारी बने । मेरी महत्ताका पता इतनेसे ही लगाया जा सकता है कि नाककी रक्षाके लिए कोई भी व्यक्ति अपना सर्वस्व छोड़नेको तैयार हो जाता है।" ___ नाककी इस आत्मप्रशसाको सुनकर कान कहता है-"री मूर्खा ! तुझे घमण्ड हो गया है, तेरे दपको मैं चूर कर दूंगा । तू कितनी धिनावनी है, दिनरात तुझमेंसे पानी गिरता रहता है। छींक किसी भी इष्ट काममे बाधक हो जाती है। तू गन्दगीका भाण्डार है। देख मेरी ओर, मैं कितना भाग्यशाली हूँ। अच्छे-अच्छे मधुर शब्द श्रवण कर कविता रचनेकी प्रेरणा मैं ही देता हूँ| धर्मोपदेश सुननेका काम भी
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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