________________
१६८ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन
मोह-सो है फौलदार क्रोध-सो है कोतवार; लोम-सो धार जहाँ लूटिवैको रह्यो है। उदैको जु काजी माने, मानको अदल जाने । कामसेनाका नवीस आई चाको कहो है। ऐसी राजधानी में अपने गुण भूलि रह्यो।
सुधि जव आई तव ज्ञान आय गो है। मुखुद्धि चेतनराजाको समझाती है
कौन तुम, कहाँ आए कौन बौराये तुमहिं । काके रस राचे कछु सुधहू धरतु हो । कौन है ये कर्म जिन्हें एकमेक मानि रहे; अजहूँ न लागे हाय मावरि भरत हो ॥ वे दिन चितारो जहाँ यीते हैं अनादि काल; कैसे कैसे संकट सहे हू विसरतु हो । तुम तो सयाने पै सयान यह कौन कीन्हों; तीन लोक नाय है के दीन से फिरतु हो । सुनो जो सयाने नाहु देखो नेक टोटा लाहु कौन विवसाहु नाहि ऐसी लीजियतु है। दस द्यौस विप सुख ताको कहो केतो दुख , परिक नरक मुख कोली सीजियतु है । केतो काल बीत गयो, मनहून छोर लोय; कहूँ तोहि कहा भयो ऐसो रीझियत है। आपु ही विचार देखो, कहिवे को कौन लेखो;
आवत परेखो ना कहो कीलियतु है ॥ इसमे पाँचों इन्द्रियोंका सुन्दर सवाद भैया भगवतीदास-द्वारा वर्णित