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हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन पइ विणु को विज्जा आराहह। पड विणु चन्दहासु को साहह । को गंधव वापि आडोहह । कण्णहो छवि-सहासु संखोहह ॥ पइ विशु को कुवेरु भंजेसह । तिजग-विहुसणु कहो वसे होसह ॥ पइ विणु को जमु विणिधारेसह । को कहलासुखरण करेसइ ।। सहस-किरण णलक्कुव्वर-सक्कहु । को अरि होसइ ससि-वरुणकहु । को णिहाण रयणइ पालेसह ।
को बहुरूविणि विजा लएसइ ॥ सामिय पई भलिएण विणु, पुष्फविमाणे चडेवि गुरुभत्तिए । मेर-सिहरे जिण-मंदिरइ, को मइणेसह बंदण-हत्तिए ।
इसी प्रकार हनूमानके युद्धका वर्णन भी बहुत ही ओजस्वी और मर्मस्पर्शी है, पढ़ते ही हत्तन्त्रियाँ शकृत हो उठती हैं, मनमे उत्साह और स्फूर्ति जागृत हो जाती है। समस्त वातावरण युद्धोन्मुख दिखलायी पड़ता है, निर्जीव और शुष्क धमनियोमे भी खस्थ रक्तका संचार होने लगता है। - अपभ्रश भापाके पउमचरिउ, हरिवंशचरित, भविसयतकहा आदिके प्रवन्धमें तनिक भी शिथिलता या विशृखलता नहीं है। कथाको न तो अनावश्यक विस्तार दिया गया है और न अक्रमबद्धता । कथानकमें गतिखामाविकता और प्रवाह है। वस्तुव्यापारवर्णन और भावाभिव्यञ्जना भी अनुपम है। चरित्र-चित्रणमें इन कवियोने अपनी पूरी पटुता प्रदर्शित की है। रामके वन-गमनके समय दशरथकी मानसिक अवस्थाका चरित्रचित्रण पितृहृदयकी अपूर्व झॉकी उपस्थित करता है।
'पउमचरित' में सीताहरणके पश्चात् रामकी अर्द्ध विक्षिप्त और मोहामिभूत अवस्थाका चित्रण रामके मानवीय चरित्रमे चार चांद लगाता है।