SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६४ हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन लगा और दूसरी ओर विजित मोह अपनी सेनाको खोकर चेतनकी आधीनता और महत्ता स्वीकार कर चुका था । चेतन राजाने अपने चौदहवे नगरमें पहुंच थोडे ही समयमें मोक्षनगरी प्राप्त कर ली थी और यहीं स्थायी रूपसे राजधानी नियुक्तकर शासन करने लगा। यह एक सुन्दर काव्य है। कविने दोहा, चौपाई, सोरठा, पद्धरि मरहठा, करिखा और प्लवङ्गम छन्दोंमे इसकी रचना की है । कुल पद्य _ २९६ हैं । यह काव्यके अनेक गुणोंसे समन्वित है। काव्य-सौष्ठव ७५ कल्पना, अरूप भावना, अलंकार, रस, उक्ति-सौन्दर्य और रमणीयता आदिका समवाय इसमें वर्तमान है । भावनाओंके अनुसार मधुर अथवा परुप वोंका प्रयोग इस कृतिमे अपूर्व चमत्कार उत्पन्न कर रहा है । युद्ध का वर्णन कविने कितना सजीव किया हैसूर बलवंत मदमत्त महा मोह के, निकसि सब सैन आगे जु आये । मारि घमासान महा जुद्ध बहु क्रुद्ध करि, एक से एक सातों सवाये । वीर सुविवेकने धनुष ले ध्यानका, मारिक सुभट सातों गिराये। कुमुक नो ज्ञान की सैन सव संग धसी, मोहके सुभट मूर्छा सवाये। रणसिंगे बनहिं कोऊ न भजहिं, करहिं महा दोऊ जुद्ध । इत जीव हंकारहि, निज पर धारहिं, करह गरिन को द॥ युद्ध-वर्णनमें द्वित्व और संयुक्त वर्णोंका प्रयोगकर सजीवता लानेका प्रयास प्रशंस्य है। शब्दचित्रो-द्वारा कविने युद्धक्षेत्रका चित्र उतारने में सफलता प्राप्त की है। वीर रसके सहायक भयानक और वीभत्स रसोंका निरूपण भी यथास्थान विद्यमान है। आरम्भमें सुसंस्कृत शृङ्गारका आभास भी मिलता है, कविने वीर रसकी प्रेरणाके लिए संयमित शृङ्गारका वर्णन किया है। उपमा, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, यमक, रूपक और समासोक्ति अलंकारोंकी छटा भी कवितामें विद्यमान है । रूपक-द्वारा व्यजित आत्मिक वाणीका सिहावलोकन करनेपर प्रतीत होता है कि कवि चिर सुखकी
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy