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रीति-साहित्य
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कारण लौकिक रूपमे रस - विरस है । महाकवि बनारसीदासने इसकी अलौकिकताका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है
जब सुबोध घटमैं परगासै । नवरस विरस विषमता नाले ॥ नवरस लखै एक रस माहीं । तातें विरसभाव मिटि जाहीं ॥
अर्थात् जब हृदयमे विवेक - यथार्थ ज्ञानका प्रकाश होता है, तब रसोकी बिरसता और विषमताका नाश हो जाता है, और निरन्तर आत्मानुभूति होने लगती है ।
तीव्र राग ही क्लान्त होकर जब वैराग्यमे परिणत हो जाता है, तत्र आत्मचिन्तन उत्पन्न होता है और इच्छा सुन्दर रमणियोमे प्रीति, मूवाह्य वस्तुओंके साथ एकमेक रूप होनेके परिणाम, काम- इष्ट वस्तु अभिलाषा, स्नेह - विशिष्ट प्रेम, गार्ध्य - अप्राप्त वस्तुको इच्छा, अभिनन्द - इष्ट वस्तुकी प्राप्ति होनेपर सन्तोष, अभिलाषा - इष्ट वस्तुकी प्राप्तिके लिए मनोरथ एव ममत्व - यह वस्तु मेरी है का परिष्कार होता है । रसानुभूति अलौकिक रूपसे प्रशम - रागादिकका उत्कृष्ट राम, गुणके आविर्भूत होनेपर ही होती है। जैन कवियोकी अनुभूतिका धरातल बहुत गहरा है । इन कलाकारोंने अपनी पैनी दृष्टि डालकर सूक्ष्म-तरल भावनाओके साथ क्रीड़ा करते हुए आत्म-सौन्दर्यको ग्रहण किया और इन्द्रिय-विलाससे दूर रहकर आत्मलोकमें विचरण करनेका प्रयास किया है ।
जैन साहित्य - निर्माताओंने इसका प्रयोग आत्मानन्दके अर्थम किया है । रसको महाकवि बनारसीदासने चिदानन्दस्वरूप माना है । समाधि या ध्यान- द्वारा जिस आनन्दकी अनुभूति होती है, वही आनन्द तत्कालके सहन साक्षात्कार-द्वारा उपलब्ध होता है । यों तो जैन साहित्यमे पुलके स्प, रस, गन्ध और स्पर्श इन चार प्रधान गुणोमें रसको युगके रूपमे परिगणित किया है।
लौकिकरूपमें रसका प्रयोग जैनसाहित्यमे अनेक स्थलोपर हुआ है ।
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