________________
२२६ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन "रस्यन्ते अन्तरात्मनानुभूयन्ते इति रसास्तसहकारिकारणसन्निधानेपु चेतोविकारविण पेपु रसाः भंगारादयः" । अर्थत् अन्तरात्गकी अनुभूतिको रस कहते हैं तथा इसमें सहकारी कारण मिलनेपर नो मनमें विकार उत्पन्न होता है, वह शृङ्गाराद्विरप रस कहलाता है। इसीको सष्ट करत
हुए कहा है
बाहाालम्बनो वनविकारो मानसो नवत् ।
स मावः कथ्यते सद्धिः तस्योत्कर्षो रसः स्मृतः ।। अर्थान्–बाह्य बलुके आलम्बनने जो मानसिक विकार उत्पन्न होता है, वह भाव कहलाता है और इसी मायके उत्कर्षको रस कहा जाता है। भगवदिनसेननं अलंकार-चिन्तामणिमें रसका स्पष्टीकरण करते हुए बताया है
अयोपशमने मानाऽवृत्तिवीर्यान्तराययोः । इन्द्रियानिन्द्रियजीव स्विन्द्रियज्ञानमुद्भवेत् ॥ तेन संवेद्यमानो यो मोहनीयसमुद्भवः ।
रसामियक्षकः स्थायिभावश्चिचिपर्ययः ।। अर्थ-जानावरण और वीर्यान्तरायके श्योपशम होनेपर इन्द्रिय और मनके द्वारा जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह इन्द्रियचान है। इस इन्द्रिय जानके मुंदनके साथ मेहनीय कम्का उठ्य होनेपर विकृत चनन्य पर्याय, जो कि त्यायी भावरूप है, रसकी अभिव्यक्ति करती है।
सायी मात्रक लापका निरूपण करते हुए बताया है
सम्मोगगोचरो वान्डाविशेपो रतिः। विकारदर्शनादिनन्यो मनोयो हासः । स्वस्येष्टजनवियोगादिना स्वस्मिन्दुःखोकपः शोकः। रिपुताप- ' कारिणश्वेतसि प्रज्वलन क्रांवः । कार्यपु लोकोत्कृष्टेषु स्थिरतरप्रयवः उत्साहः। रात्रिलोकनादिना मनयांशङ्कन भयन् । अर्यानां दोपविला
१. अभिवानरानन्द 'रस' शब्छ ।