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________________ २२४ हिन्दी - जैन-साहित्य- परिशीलन रचनेकी क्या आवश्यकता १ जो कवि विषय-काव्य रचकर जनता - जनार्दनको विपयोकी ओर प्रेरित करते हैं, वे मानव समाजके शत्रु है । ऐसे कुकवियो से सत्साहित्यके 'जीवनका निर्माण और उत्थान' कभी सिद्ध नहीं हो सकता है। कामुकताकी वृद्धि करना कविकर्मके विपरीत है, अतएव कोरी शृगारिकताको प्रश्रय देना उचित नहीं है । राग उदय जग अन्ध भयो, सहजे सब लोगन लाज गँवाई । सीख विना नर सीखत है, विषयानिके सेवनकी सुघराई ॥ तापर और रचे रसकाव्य, कहा कहिये तिनकी निठुराई । अन्ध असूझनिकी अँखियान में झोंकत है रज रामदुहाई ॥ जहाँ शृगारी कवियोंने स्तनोको स्वर्णकलशोकी और उनके व्यामल अग्रभागको नीलमणिक ढँकनीकी उपमा दी है, वहाँ कवि भूधरदासने क्या ही सुन्दर कल्पना द्वारा भावाभिव्यञ्जन किया है कंचन कुम्भनकी उपमा, कहि देत उरोजनको कवि बारे । ऊपर श्याम विलोकतके मनिनीलम ढँकनी ढँक ढारे ॥ यो सत वैन कहे न कु पण्डित, ये युग आमिप पिण्ड उधारे । साधन र दुई मुँह छार, भये इहि हेत किधौं कुच कारे ॥ जैन साहित्यमे अन्तर्मुखी प्रवृत्तियोंको अथवा आत्मोन्मुख पुरुपार्थको रस बताया है। जबतक आत्मानुभूतिका रस नहीं छलकता रसमयता नही आ सकती | विभाव, अनुभाव और संचारीभाव रस-सिद्धान्त जीवके मानसिक, वाचिक और कायिक विकार हैं, स्वभाव नही है । रसोका वास्तविक उद्भव इन विकारोके दूर होनेपर ही हो सकता है । जवतक कपाय — विकारोंके कारण योगकी प्रवृत्ति शुभाशुभ रूपमें अनुरंजित रहती है, आत्मानुभूति नहीं हो सकती । शुभाशुभ परिणतियोकै नाश होनेपर ही शुद्धानुभूतिजन्य आत्मरस छलकता है, इसी
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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