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रीति-साहित्य
हाड दम्भ भुजा कहे कौल नाल काम शुधा, हाड ही के थंभा जंघा कहे रंभा तरु है। यों ही झूठी जुगति बना औ कहाचे कपि,
एते पै कहैं हमें शारदाको पर है। जैन कान्यकी वैराग्योन्मुख प्रवृत्तिका विश्लेषण करनेपर निम्न निष्कर्ष निकलते हैं
(१) इसका मूलाधार आत्मानुभूति या प्रथम गुण है। इसमे पार्थिव एव ऐन्द्रिय सौन्दर्यके प्रति आकर्षण नहीं है। अपार्थिव और अतीन्द्रिय सौन्दर्यके रहस्य सकेत सर्वत्र विद्यमान है।
(२) रागात्मिका प्रवृत्तिको उदात्त और परिष्कृत करना तथा जीवनोन्नयनके लिए तत्त्वज्ञानका आश्रय लेना । जीवन-साधना स्वानुभव या तत्त्वज्ञानके अनुभव-द्वारा ही होती है, अतः तत्त्वज्ञानको जीवनम उतारना तथा जीवनकी वास्तविकताओसे आमने-सामने खड़े होकर टक्कर लेने में सम्पूर्ण चेतनाका उपयोग करना ।
(३) वासनाके स्थानपर विशुद्ध प्रेमको अपनाना और आदर्शवादी बलिदानकी भावनाको जीवनमे उतारना।
(४) तरलता और छाके स्थानपर आत्माकी पुकार एव स्वस्थ जीवन-दर्शनको उपस्थित करना ।
(१) जीवनके मूलगत प्रश्नोका समाधान करते हुए उबुद्ध जीवनकी गहन मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समस्याओसे अभिज्ञ करना।
(६) घोर अव्यवस्थासे क्षत-विक्षत सामन्तवादके भग्नावशेषकी छायामे त्रस्त और पीड़ित मानवको वैयक्तिक स्फूर्चि और उत्साह प्रदान करना। ' (७) जीवन पथको, नैराश्यके अन्धकारको दूरकर आशाके संचार-द्वारा आलोकित करना एव विलास जर्जर मानवमे नैतिक बलका सचार करना।
कविवर भूधरदासने कवियोको बोध देते हुए बताया है कि बिना सिखाये ही लोग विषयसुख सेवनकी चतुरता सीख रहे हैं, तव रसकाव्य