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२२२ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन
रीतिकालकी सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक परिस्थितियोंने भाषा और कविता दोनोको अलकृत किया है। समयकी रुचि और तदाश्रित काव्य-प्रेरणा अलकरणके अनुकूल .थी, अतः काव्यके रूपआकारको सजानेका पूरा प्रयत्न किया है।
हिन्दीके रीतिग्रन्थ प्रायः काव्यप्रकाश, शृङ्गार-तिलक, रसमजरी, चन्द्रालोककी विषय-निरूपण-शैलीपर रचे गये हैं। विपयका पिष्ट-पेपण होनेके कारण कोई नयी उद्भावना रस, अलंकार या शब्द शक्तिके सम्बन्धम नहीं हुई । संस्कृत साहित्यके समान शृङ्गारको ही रसराज मानते हुए नायक-नायिकाओंके भेद-प्रभेदोमे ही वालकी खाल निकालकर कलाकार कवि-कर्मकी इतिश्री समझते रहे।
परन्तु जैन कलाकारोने इस विलासिताके युगमें भी वहिर्मुखी वृत्तियोंका सकोच और अन्तर्मुखी वृचियोंके प्रसार-द्वारा अन्तस्के प्रकाशको प्राप्त कर चिर-सत्य एवं चिर-सुन्दरको आधारभूमिपर आरूढ़ हो शान्तरसमें निमनन किया है । महाकवि बनारसीदासने शृंगारी कवियोकी भर्सना करते हुए कहा है
ऐसे मूढ कु-कवि कुधी, गहें मृपा पथ दौर । रहे मगन अभिमान में, कह औरकी और ॥ वस्तु सरूप लखें नहीं, बाहिन दृष्टि प्रमान ।
मृपा विलास विलोकके, करें मृपा गुनगान ॥ कविने शृगारी कवियोंके मृषा गुनगानका विदलेषण करते हुए ववाया है
माँस की प्रन्थि कुच कंचन कलस कह, कह मुखचन्द जो सलेपमा को घर है। हाड के दशन आहि हीरा मोती कहे वाहि, मास के अधर मोठ कहे विवफर है।