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रीति-साहित्य
दोनों ही अपना नैतिक बल खो बैठे थे। दोनों ही निर्वाध इन्द्रियलिप्सामे रत थे । कवि और कलाकार अमीर, रईस और राजाओंके आश्रममे पहुँचकर इन्ही उच्चवर्गके व्यक्तियोकी कामपिपासाको उत्तेजित करनेमें संलग्न थे । उस शृंगारिक और विलासिताके युगमे वाह्य और आन्तरिक जीवनकी स्वस्थ अभिव्यक्तिका मार्ग अवरुद्ध हो चुका था । जन-साधारणकी वृत्तियाँ बहिर्मुखी होकर अस्वस्थ कामविलासमे ही अपनेको व्यक्त करती थीं । राजा, महाराजा और रईस वाह्य जीवनसे त्रस्त होकर अन्तःपुरकी रमणियोंकी गोद में शान्तिका अनुभव करते थे । नैराग्यने अतिशय विलासिताका रूप ग्रहण कर लिया था ।
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इस युगमं हिन्दू धर्मकी स्थिति और भी दयनीय थी । जीवनमे विलासिता आ जाने के कारण साधना और तत्त्वचिन्तनमे शैथिल्य आ गया था । धर्मका तात्त्विक विकास विलकुल अवरुद्ध हो गया था, भक्ति और सेवा-अर्चन ऐश्वर्य और विलासने स्थान पा लिया था । विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायमै अन्धविश्वास और रूढ़ियोंने घर कर लिया था । जिससे धर्म भी शृंगार और विलासके पोपणका साधन वन गया था | भक्तिकाल के राधा-कृष्ण एक साधारण नायक-नायिकाके पटपर आसीन हो गये थे । मठ और मन्दिर देवदासियोंके चरणोकी छम-छम से गूँजते रहते थे । उनताका बौद्धिक ह्रास हो जानेके कारण साहित्यस्रष्टा और कलाकारोको मी विलास और शृङ्गारको उत्तेजित करना आवश्यक- सा हो गया था | फलतः हिन्दी साहित्यमे नायक नायिकाभेदपर सैकडो काव्य लिखे गये तथा हिन्दी कवियोने लक्षण ग्रन्थोंके साथ शृङ्गारका खुला निरूपण किया । जीवनके मूलगत गम्भीर प्रश्नोके समाधानकी ओर कवियोका बिल्कुल ध्यान ही नहीं गया । अतएव हिन्दी रीति-साहित्यमे आध्यात्मिकताका तो पूर्ण अभाव है ही, पर प्रकृतिकी दृढ़ कठोरता भी नही है । जीवनकी अनेकरूपता, जो कि किसी भी भाषा के साहित्यके लिए स्थायी सम्पत्ति है इस युग के साहित्यमे उसका प्रायः अभाव है।