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दो शब्द
गया है। अत: बहुत संभव है कि श्रेष्ठ रचनाएँ छूट भी गयी हो और निम्न कोटिकी रचनाओंको स्थान मिल गया हो।
मेरी इच्छा इस परिशीलनमें कवि और उनकी रचनाओं के सम्बन्धमें ऐतिहासिक विवेचन प्रस्तुत करने की थी, किन्तु जिन दिनों इस परिशीलनको तैयार कर रहा था, उन दिनो श्री बाबू कामताप्रसादजीका 'हिन्दी जैन साहित्यका सक्षित इतिहास प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तककी ऐतिहासिक भूलोपर जैन आलोचकोंकी रोष-चिनगारियाँ उद्बुद्ध हो रही थीं, अतएव ऐतिहासिक क्षेत्रमे कदम बढ़ानेका साहस नहीं हुमा । भूल होना स्वाभाविक बात है, मैतः प्रत्येक मनुष्य अपूर्ण है। आलोचकों का कर्तव्य है कि सहिष्णुतापूर्वक आलोचना करते हुए भूलोकी ओर संकेत करें। उन मालोचनाओंको देखकर मुझे ऐसा लगा कि कतिपय लब्धप्रतिष्ठ प्राचीन लेखक नवीन लेखकोको इस क्षेत्रमें आया हुआ देखकर असहिष्णु हो उठते हैं और सहानुभूति एव सहृदयतापूर्वक आलोचना न कर तीव्र रोष और क्षोम दिखलाते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि आज जैन साहित्यपर आलोचना-प्रत्यालोचनात्मक अन्योंका प्रायः अभाव है। नवीन लेखकोको कहींसे भी प्रोत्साहन नहीं मिलता, बल्कि निराशा ही मिलती है। कतिपय ग्रन्थमालाओंसे उन्हीं विद्वानोंके अन्य प्रकाशित होते है, जो उनसे सम्बद्ध हैं या उन सम्बद्ध विद्वानोके मित्र है। कहने के लिए समाओंमें हमारे मान्य आचार्य बहुत कुछ कह जाते हैं, पर वे अपने हृदयको टटोलें कि सत्य क्या है ? यदि ख्यातनामा विद्वान् प्रोत्साहन दे और नवीन लेखकों का मार्ग प्रदर्शन करे तो जैन साहित्यपर वेजोड़ कृतियों शीघ्र ही प्रकाशमे आ सकती हैं। अस्तु,
परिशीलन शब्द परि उपसर्ग पूर्वक शील धातुसे भाव अर्थमे ल्युट् प्रत्यय करनेपर बनता है, जिसका अर्थ होता है सभी दृष्टियोसे आलोडनविलोडन कर अध्ययन प्रस्तुत करना। उपर्युक्त अर्थकी दृष्टिसे तो इस कृतिका नाम सार्थक नहीं है, यतः समस्त दृष्टिकोणोंसे रचनाओंका शीलन नहीं किया गया है, पर इस शब्दका व्यावहारिक और प्रचलित अर्थ यह भी लिया जाता है कि शास्त्रीय दृष्टिसे रचनाओका विश्लेषण करना । मेरी दृष्टि प्रधानतः यह रही है कि परिशीलित रचनाओंका कथानक भी अवश्य दिया जाय । क्योकि जैन साहित्यकी अधिकाश कथाएँ इस प्रकारकी हैं, जिनका आधार लेकर श्रेष्ठतम नवीन काव्य लिखे जा सकते है। अतएव आलोचनाके साथ कथावस्तु देनेकी चेष्टा की गयी है।