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________________ 100 हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन है। कवीरके रहस्यवाद-सम्बन्धी अनेक पद बनारसीदासके पदोके समकक्ष है। कबीरका मानवीय विकारों और प्रवृत्तियोंका विश्लेपण तो अनेक अशोमें जैन-पद-रचयिताओंसे समानता रखता है। मोक्षप्राप्तिका मूल्साधन ब्रह्म या शुद्धास्माकी स्मृति है। मनुष्य सासारिक स्वार्थपरक कार्योंमे जैसे-जैसे रत होता जाता है, वैसे-वैसे यह स्मृति भी क्षीण होती जाती है। कवीरने बताया है कि इस सासारिक द्वन्दमें रहते हुए भी कभी-कभी ब्रह्मकी स्मृतिकी झलक प्राप्त हो सकती है। मनुष्य अपने स्वरूपको भूल जानेसे ही ससारमें परिभ्रमण कर रहा है। भ्रान्तिसे जैसे सिंह जलमं पडनेवाले प्रतिविम्बको अपना शत्रु समझ क्रुद्ध हो उससे युद्ध करने लगता है और अनेक विपचियोको सहन करता है, अथवा शुक जैसे अपने उड़नेकी चालको भूलकर व्याधकी नलिनीपर बैठते ही, उसके घूम जानेसे उल्टा लटक जाता है और समझने लगता है कि नलिनीने उसे पकड लिया है। इसी प्रकार यह आत्मा अपने स्वस्पको भूलकर नाना प्रकारके कष्टोको उठा रहा है __अपनपो आप ही विसरौ। जैसे सोनहा काँच-मन्दिर में भरमत भूकि मरो ॥ जो केहरि वपु निरखि कृपजल प्रतिमा देखि परो। ऐसेहिं मदगज फटिकशिला पर दसननि आनि अरो।। मरकट मुठी स्वाद ना विसरै घर घर नटत फिरो। कह 'कवीर' नलनी के सुवना तोहि कौने पकरो ॥ कवि दौलतरामने इसी आशयका विवेचन किया है। आत्मस्वरूपकी विस्मृतिके कारण ही ससारमे अनेक कष्ट उठाने पड़ रहे है । भ्रमवा ही यह जीव अपनेसे भिन्न पर-पदार्थोंको अपना समझ गया है। कवि कहता है
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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