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________________ पदोंका तुलनात्मक विवेचन विवेचन करना एव आध्यात्मिक भूमियोका स्पर्श करते हुए सहज समाधिको प्राप्त करना है। साधक अपने इस शरीरका उपयोग मोक्षप्राप्तिके लिए करता है, वह विश्वके भौतिकवादकी चकाचौधते अविचलित रहकर स्वानुभूति-द्वारा आत्माकी विभाव परिणतिको स्वभाव परिणतिक रूपमे परिवर्तित करता है । जैनपदोमे यद्यपि ऊँचे दार्शनिक सिद्धान्तोका भी विश्लेषण है, परन्तु जीवनकी व्याख्या अपनी प्रवृत्तियोका परिष्कार कर जीवनके चरम लध्यको प्राप्त करनेका सकेत भी निहित है। हिन्दी साहित्यम गीत और पद-रचयिताओमे निर्गुण सन्त कबीर रविदास, दादू, मलूकदास और सगुण सम्प्रदायमे सूर, तुल्सी, मीरा आदि मक्त कवियोका नाम आदरके साथ लिया जाता है। इन सन्त और मत्ताने पदोकी रचना कर हिन्दी साहित्यमे भक्ति और अध्यात्म-सम्बन्धी अपूर्व व्याख्याएँ प्रस्तुत की है । निर्गुण सन्तोंके तात्त्विक सिद्धान्त उपनिपटोंके वेदान्तवाद तथा जैनोके शुद्धात्मवादसे बहुत साम्य रखते हैं। इन सबोंकी भक्तिकी मूलप्रेरणा वेदान्त या शुद्धात्मवादसे मिली, इसी कारण कवीरने बताया-"सबके हृदयमे परमात्माका निवास है। उसे बाहर न ढूंढकर भीतर ही ढूँढ़ना चाहिये । आत्मा ही परमात्मा है, दोनोंमे एकत्वभाव है। इस प्रकार प्रत्येक जीव परमात्मा है । यही नहीं, एक अर्थमे जो कुछ है सब परमात्मा है। निर्गुण सन्तोंने अवतारवादका खण्डन किया । पूजा-अर्चा जिसका सम्बन्ध दृश्य पदार्थोरो है, इनके विचारोके प्रतिकूल है । भौतिक गरीरकी दृष्टिसे कोई भी व्यक्ति ईश्वर नहीं हो सकता है । आत्माकी दृष्टिसे समी आत्माएँ ब्रह्म है । अतएव सन्तांक मतमे जन्म-मरणसे रहित परब्रह्म ही परमात्मा हो सकता है। इसी परब्रह्मका नाम-स्मरण, भक्ति और प्रेम करनेसे कल्याण होता है। जब इसका प्रेम चरमावस्थाको प्राप्त हो जाता है तो साधककी आत्मा उसी ब्रह्ममे मिल जाती है । इसी भक्ति-भावनाको लेकर कवीर, रविदास आदि सन्तोने अध्यात्म-पद रचे । इन पदोंकी तुलना अनेक जैन पदोसे की जा सकती
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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