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परिशिष्ट
पूजाओके अतिरिक्त ४५ विषयोपर इनकी फुटकर कविताएँ नीति और उपदेशात्मक अधिक हैं। है । विचार और भावनाएँ सुलझी हुई हैं। चित्र देखिए
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कविताएँ हैं । इनकी भाषापर उर्दू का प्रभाव ससारका जीता-जागता
रुजगार बनै नाहि धन तौ न घर माहि
खानेकी फिकर बहु नारि चाहै गहना । देनेवाले फिरि जाहिं मिले तो उधार नाहिं,
साझी मिलै चोर धन भावे नाहि लहना । कोक पूत ज्वारी भयौ घर माहिं सुत थयौ,
एक पूत मरि गयौ ताको दुःख सहना । पुत्री घर लोग भई व्याही सुता जम लई,
एते दुःख सुख जानै तिसे कहा कहना ॥
वृन्दावन - कवि वृन्दावनका जन्म शाहावाद जिलेके बारा नामक गाँवमे संवत् १८४८ मे हुआ था । आप गोयलगोत्रीय अग्रवाल थे । कविके वशधर बारा छोड़कर काशीमे आकर रहने लगे थे । कविके पिताका नाम धर्मचन्द्र था । १२ वर्षकी अवस्थामे वृन्दावन अपने पिता के साथ काशी आये थे । काशीमे यह लोग बावर शहीदकी गलीमें रहते थे ।
वृन्दावनकी माताका नाम सिताबी और स्त्रीका नाम रुक्मिणी था । इनकी पत्नी बड़ी धर्मात्मा और पतिव्रता थी । इनकी ससुराल भी काशीके ठठेरी बाजारमें थी । इनके श्वसुर एक बड़े भारी धनिक थे। इनके यहाँ उस समय टकसालाका काम होता था। एक दिन एक किरानी अग्रेज इनके श्वसुरकी टकसाला देखनेके लिए आया । वृन्दावन भी उस समय वहीं उपस्थित थे । जब उस किरानी अग्रेजने इनके श्वसुरसे कहा - "हम तुम्हारा कारखाना देखना चाहते हैं, कि उसमें कैसे सिक्के तैयार होते है । वृन्दावनने उस अंग्रेज किरानीको फटकार दिया और उसे टकसाला नहीं दिखलायी। वह अंग्रेज नाराज होता हुआ वहाँसे चला गया ।
दैवयोगसे कुछ ' दिनोंके उपरान्त वही अग्रज किरानी काशीका कलक्टर होकर आया । उस समय वृन्दावन सरकारी खजाचीके पदपर आसीन थे । साहब बहादुरने प्रथम साक्षात्कार के अनन्तर ही इन्हें पहचान लिया और मनमे बदला लेनेकी बलवती भावना जागृत हुई । यद्यपि कविवर अपना कार्य बड़ी ईमानदारी, सच्चाई और कुशलता से सम्पन्न