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आध्यास्मिक रूपक काव्य
१४१ अपनी ओर खीच लेती हैं। जीवनके कोमल पक्षको सम्यक् अभिव्यजना होनेसे कविता हृदय और मस्तिक दोनोंको समान रूपसे छूती है । इसमें जीवन सम्बन्धी उन विशेप विचारो और भावनाओका सकलन किया गया है, जो यथार्थ जीवनको प्रगति देते हैं । ____ अन्तर्जगत् और बाह्य-जगत्का यथार्थ दिग्दर्शन कराते हुए आत्माकी शुद्धताका निस्पण अद्भुत ढगसे किया है। इसमे ३१० दोहासोरठा, २४३ सवैया-इकतीसा, ८६ चौपाई, ६० सवैया-तेईसा, २० छापय, १८ कवित्त, ७ अडिल्ल और ४ कुण्डलिया है। सब ७२६ पद्य हैं । इसमे कविने आत्मतत्त्वका निरूपण नाटकके पात्रोका रूपक देकर किया है। इसमे सात तत्त्व अभिनय करनेवाले है। यही कारण है कि इसका नाम नाटक समयसार रखा गया है।
कविने मगलाचरणके उपरान्त सम्यग्दृष्टिकी प्रगसा, अज्ञानीकी विभिन्न अवस्थाएँ, नानीकी अवस्याएँ, ज्ञानीका हृदय, ससार और शरीरका स्वरूप-दिग्दर्शन, आत्मजागृति, आत्माकी अनेकता, मनकी विचित्र दौड़ एवं सप्त व्यसनोंका सच्चा स्वस्प प्रतिपादित करनेके साथ, जीव, अनीव, आसव, बन्ध, सवर, निर्जरा और मोन इन साती तत्वोका काव्य स्पमे नित्पण किया है। आत्माकी अनुपम आमाका कविने कितना सुन्दर और स्वाभाविक चित्रण किया है । कवि कहता है
जो अपनी दुति आप विराजत, है परधान पदारथ नामी। चेतन अंक सदा निकलंक, महासुख सागरको विसरामी ॥ जीव अनाव जिते जगमें, तिनको गुननायक भन्तरजामी। सो शिवरूप व शिवथानक, ताहि विलोकनमे शिवगामी ।
अनानी व्यक्ति भ्रमके कारण अपने स्वस्पको विस्मृत कर समारम जन्म-मरणके कष्ट उठा रहा है। कवि कहता है कि कायाकी चिनगालामें कर्मका पलग विछाया गया है, उसपर मायाकी सेज सजावर मिय्या