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हिन्दी - जैन-साहित्य - परिशीलन
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परिणाम यह निकलता है कि वह शतरनके खिलाड़ीके समान अपनी बाजीको वही छोड़ चला जाता है । सारे मनसूबे मन - के मन मे ही समा जाते है। यह विचारधारा किसी एक व्यक्तिकी नही है, प्रत्युत मानवमात्रकी है, हर व्यक्तिकी यही अवस्था होती है । कवि इस सत्यका उद्घाटन करता हुआ कहता है
चाहत है धन होय किसी विध, तो सब काज सरे नियरा जी । गेह चिनाय करूँ गहना कछु, व्याहि सुता सुत बाँटिय भाँजी ॥ चिन्तत यो दिन जाहिं चले, जम मानि अचानक देत दगाजी । खेलत खेल खिलारि गये, रहि जाइ रुपी शतरंजकी बाजी ॥
इस संसार में मनुष्य आत्मज्ञानसे विमुख होकर शरीरकी ही सेवा करता है । इस शरीरको स्वच्छ करनेमे अनेक साबुनकी बट्टियाँ रगड़ डालता है तथा सुगन्धित तेलकी शीशियों खाली कर डालता है। फैशनके अनेक पदार्थों का उपयोग शारीरिक सौन्दर्य-प्रसाधनमे करता है, प्रतिदिन रगड़-रगडकर शरीरको साफ करता है, इत्र और सेन्टोका आस्वादन करता है तथा प्रत्येक इन्द्रियकी तृप्ति के लिए अनेक प्रकारके पदार्थोंका संचय करता है । स्पर्शन इन्द्रियकी तुष्टिके लिए वेश्यालयोमें जाता है, रसना की तृप्ति के लिए अभक्ष्य भक्षण करता है, घ्राणकी सतुष्टिके लिए इत्र फुलेलकी गन्ध लेता है, नेत्रकी तृप्तिके लिए मनोहर रूपका अवलोकन करता है एव कर्ण इन्द्रियकी तृप्तिके लिए मनोहर मधुर शब्दोंको सुनने के लिए लालायित रहता है । इस प्रकारके मानवकी दृष्टि अनात्मिक है, वह शरीरको ही सब कुछ समझ गया है । कवि भूधरदासने अपने अन्तस्मे उसी सत्यका अनुभव कर जगत्के मानचोको सजग करते हुए कहा है
माता पिता-रज-बीरज सौं, उपनी सब सात कुधात भरी है। माखिनके पर माफिक बाहर, चामके बैठन बेद धरी है ॥