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________________ प्रकीर्णक काव्य १९५ इसी मावनाके द्वारा हो सकता है। यद्यपि कहनेका ढग सिद्धान्त निरूपण जैसा ही है, परन्तु मंजुल भावनाओकी अभिव्यक्ति कविने सरस और हृदयग्राहक ढगसे की है । विषय-प्रतिपादनमें 'दैन्य' या पलायन वृत्तिका अनुसरण नहीं है, प्रत्युत तथ्य-विवेचन है। भूपरशतकके कवित्त, सवैये, छप्पय वडे ही सरस, प्रवाहपूर्ण, लोकोकि समाविष्ट एवं जोरदार हुए है । वृद्धावस्था, ससारकी असारता, काल-सामर्थ्य, स्वार्थ-परता, दिगम्बर मुनियोकी तपस्या, आशा-तृष्णाकी नग्नता आदि विषयोका निरूपण कविने बड़े ही अद्भुत ढगसे किया है। विषय-प्रतिपादनकी गैली बड़ी ही स्पष्ट है। भावोको विशद करनेमे कविको अपूर्व सफलता प्राप्त हुई है। जिस वातका कवि निरूपण करना चाहता है, उसे स्पष्ट और निर्भय होकर प्रस्तुत करता है। नीरस और गूढ विषयोंका निरूपण मी सरस और प्रभावोत्पादक ढगसे किया गया है। कल्पना, भावना और विचारोका समन्वय सन्तुलित रूपमे हुआ है। आत्मसौन्दर्यका दर्शन कर कवि कहता है कि ससारके भोगोंमें लिस प्राणी अहर्निश विचार करता रहता है कि जिस प्रकार भी सभव हो, उस प्रकार मैं धन एकत्रित कर आनन्द भोगें। मानव नानाप्रकारके सुनहले स्वप्न देखता है और विचारता है कि धन प्राप्त हो जानेपर अमुक कार्यको पूरा करेंगा । एक सुन्दर भव्य प्रासाद वनवाऊँगा, सुन्दर रत, मणियो और मोतियोके आभूषण बनवाऊँगा, अपनी महत्ता और गौरवके प्रदर्शनके लिए धन खर्चकर बड़ेसे बड़ा कार्य करेगा। अपने पुत्र-पौत्रादिका ठाट-बाटके साथ विवाह करूँगा। इस विवाहमे सोने चॉदीके वर्तनोका वितरण करूँगा, जगत्मे अपनी कीर्तिगाथा सर्वदा स्थिर रखनेका उपाय भी करूँगा । नहाँ अबकी बार धन हाथमे आया कि मैंने अपने यशको अमर करनेका उपाय किया। मानव इस प्रकारकी उघेढ-बुनमे सर्वदा लगा रहता है, उसका मनोराज्य निरन्तर वृद्धिंगत होता चला जाता है और एक दिन मृत्यु आकर उसके विचारोकी वीचमे ही हत्या कर देती है,
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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