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हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन राग सुई गुरु देवपै कीजिये, दोप सुई न विप सुख भावे। मोह सुई जु लखै सब आपसे, धानत सजनको कहिलावै ॥ पीर सुई पर पीर विहारत, धीर सुई जु कपायसौं जूझ । नीति सुई जो अनीति निधारत, मीत सुई अघसौं न भरुई। औगुन सो गुन दोष विचारत, जो गुन सो समतारस झै। मंजन सो जु करै मन मंजन, अंजन सो जु निरंजन सूझै ॥
कविने इस प्रकार जीवनमे सत्य, शिवं और सुन्दरको उतारनेका उपाय बतलाया है । निम्न पद्यमे बुद्धि और दयाके वार्तालापका कितना मुन्दर सवाद अकित किया गया है। बुद्धि दयासे अनुरोध करती है कि मखि, मैं तेरा अत्यन्त उपकार मानूंगी, तू मेरा एक काम कर दे। यह चैतन्य मानव कुबुद्धि स्पी नायिकाकै प्रेम-पाशमे बंध गया है, यद्यपि मैने इससे विरत करने के लिए इस मानवको बहुत समझाया है, पर मेरी एक भी बात नहीं सुनता । अतः तू इस मानवको समझा, जिससे यह मोहके बन्धनको तोड़ अपने वास्तविक स्पको समझ सके। री सखी दया ! तु जानती है कि सौतका अभिमान किस प्रकार सहन किया जा सकता है ? पति यदि अन्य रमणीसे लेह करने लगे, तो इससे बड़ा और क्या कष्ट हो सकता है!
बुद्धि कह बहुकाल गये दुःख, भूर भये कवहूँ न जगा है। मेरी कहाँ नहिं मानत रंचक, मोसौं विगार कुमार सगा है। येहुरी सीख दया तुम जा विधि,मोहको तोरि दे जेम वगा है। गावहुँगी तुमरी जस मैं, चल री जिस पै निज पेम पगा है ।
मानव-जीवनम विरक्ति प्राप्त करना सबसे अधिक कठिन कार्य माना गया है । कवि भूधरदासने अपने इस शतकम वैराग्य-भावना जागृत शतक करनेका विधान बतलाया है । कवि वैराग्यको जीवन
विकासके लिए परम आवश्यक मानता है, उसका अभिमत है कि विश्वकी अव्यवस्था, कलह और प्रतिद्वन्दिताका मूलोच्छेदन