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प्रकीर्णक काव्य
१९७ नाहि तो भाय लगें अबहीं, बक बायस जीव बचै न धरी है। देह दशा यह दीखत भात, धिनात नही किन बुद्धि हरी है।
मनुष्य अपनेको अमर समझ जगत्में नाना प्रकारके पाप और अत्याचार करता है । इस विनाशीक शरीरको अमर बनानेके लिए वह बड़ी-बूटियोंका सेवन करता है, नाना देवी-देवताओको प्रसन्नकर वरदान प्राप्त करना चाहता है, और विशन-द्वारा ऐसी ओपषियोका आविष्कार करता है, जिनके सेवनसे अमर हो जाय । इसके लम्बे-चौडे प्रोग्राम इस शरीरको ही सजाने, संवारने, और वृद्धिंगत करनेके लिए बनते हैं; अनाल्मिक दृष्टि रखनेके कारण आत्मकल्याणसे विपरीत सभी वस्तुएँ इसे अच्छी प्रतीत होती है। अतएव कवि विश्वके समक्ष मृत्युकी अनिवार्यताका निरूपण करता हुआ यह बतलानेका प्रयास करता है कि व्यर्थके पाप करनेसे कोई लाम नहीं, मृत्यु जीवनमें अनिवार्य है, अतः दीनता
और पलायनको छोड जीवनकै मार्गमे अबाधित रूपसे बढ़ते चले जाना यह मानवता है । जीवन-मोह कर्त्तव्य-मार्गसे च्युत कर देता है, इसीसे व्यक्ति साहस, वीरता और नैतिक कार्योंमे गतिशील नहीं हो पाता | कविने अनात्मिक भावनाओको हृदयसे निकालनेके लिए जोर देते हुए कहा है
लोहमई कोट केई कोठनको भोट करो, कॉगरेन तोप रोपि राखौ पट भेरिक। इन्द्र चन्द्र चौंकायत चौकत है चौकी देहु, चतुरंग चमू चहूँ भोर रहौ घेरिक। तहाँ एक भौहिरा बनाय बीच बैठो पुनि, बोलौ मति कोऊ जो बुलावै नाम टेरिके। ऐसे परपंच पॉतिरचौ क्यों न भाँति भांति कैसे हून छोटे जम देख्यो हम हेरिक।