________________
१९८
१९८ हिन्दी-जन-साहिन्य-परिशीलन
युवावस्था मनुष्यकी भावनाएँ एक विशेष तीन प्रवास वहती हैं। इस अवस्याम पतनका नतं और महनाका सापान दोनों ही विद्यमान रहते है, यदि तनिक भी शिथिलता आई नो गर्नमें गिरना निश्चित है
और सनग होने पर महत्ताके सोपान पर व्यक्ति बढ़ जाता है ! वो युवावत्या विषय-वासनाओंमें अनुरन रहते हैं, वे एक प्रकार अन्य मी है। परन्तु वृद्धावस्था आजाने पर भी नो आत्मकल्याणमे विमुख है, वे वस्तुतः निन्दाके पात्र हैं। कग्नेि वृद्धावत्याको बढ़ी ऐनी और सृटम दृष्टिसे देखा है। इतना स्वाभाविक और कलापूर्ण वर्णन अन्यत्र कटिनाईसे मिलेगा
दृष्टि धर्टी पलटी तनकी छवि, बंक भई गति लंक नई है। रूस रही परनी घरनी अति, रंक मयों परयंक लई है ॥ काँपत नार है मुख लार, महामति संगति छोरि गई है। अंग टपंग पुराने परै, तिगना उर और नवीन मई है ।
___
xxx लोईदिन कट सोई आत्रमें अवश्य घटे, बूंद बूंद बीत जैसे अंजुलीका जल है। देह नित छीन होत नैन तजहीन होत, जोबन मलीन हात छीन होत बल है। आवै जरा नरी तक अंतक अहरी मात्र, पर भो नीक जात नर-मी विफल है। मिल मिलापी जन पूरत कुगल मेरी,
ऐसी माही मित्र ! काहं की फुगल है । मात्र, भाषा, कल्पना और विचारोंकी दृष्सेि यह रचना श्रेष्ठ है।