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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन
इसी तरह वेश बदल साधु हो जानेसे मनुष्य शुद्ध नही हो सकता, इसके लिए भोग-प्रवृत्तिका त्याग करना परम आवश्यक है।
चौदहवी और पन्द्रहवी शताब्दीमे जैन-कवियोने बज और राजस्थानी भाषामे रासा ग्रन्थोकी रचना की । गौतम रासा, सप्तक्षेत्ररासा एवं संधपति समरा रासा आदिमे अहिंसातत्त्वके कथानको-बारा सुन्दर अभिव्यञ्जना की गयी है । सोलहवी शताब्दीमे ब्रह्म जिनदास कवि हुए, जिन्होंने मानवताकी प्रतिष्ठा करनेवाली 'आदिनाथपुराण' 'श्रेणिकचरित' आदि कई रचनाएँ लिखी । वास्तवमे इनसे ही प्रादेशिक भाषामे काव्य-रचनाका आरम्म होता है । सत्रहवी शताब्दीमें महाकवि बनारसीदास, रूपचन्द और हेमविजय आदि अनेक कवि हुए, जिन्होने राजस्थानी और ब्रज-भाषाम गद्य-पद्यात्मक रचनाएँ लिखीं।
इस प्रकार सातवी शतीसे आजतक जैन-हिन्दी-साहित्यकी धारा मानव जीवनकी विभिन्न समस्याओका समाधान करती हुई अपनी सरसता और सरलताके कारण गृहस्थ जीवनके अति निकट आयी। इस धाराका सन्त कवियोपर गहरा प्रभाव पड़ा; जिस प्रकार जैन-कवियोने घरेलू जीवनके दृश्य लेकर अपने उपदेश और सिद्धान्तोका जन-साधारणमें प्रचार किया, उसी प्रकार सन्त-कवियोने भी। अहिंसा सिद्धान्तकी अभिव्यक्ति करनेवाले लोक-जीवनके स्वाभाविक चित्र जैन साहित्यमें उपलब्ध हैं; इस साहित्यमे सुन्दर, आत्मपीयूष रस छल-छलाता है। धर्मविशेषका साहित्य होते हुए भी उदारताकी कभी नहीं है। आत्मस्वातन्त्र्य प्रत्येक व्यक्तिके लिए अभीष्ट है । प्रत्येक मानव स्वावलम्बी बनना चाहता है और चाहता है उद्घाटित करना आत्मानुभूति-द्वारा अपने भीतरके तिरोहित देवाशको।
दार्शनिक आधार हिन्दी जैन साहित्यकी मित्ति जैन-दर्शनपर आश्रित है। इसी कारण जैन-साहित्यकारोंने विलास और शृङ्गारसे दूर हटकर आत्मसमर्पण और उत्सर्गकी भावनाका अंकन किया है। अतएव शृगार-रसका