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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन चित्रण किया गया है। तेरहवी सन्धिमे ससारके स्वार्थ, राग, द्वेष और क्षणभगुर रूपको देख चन्द्रप्रमकी विरक्तिका वर्णन किया है। वे ससारकी वस्तुस्थितिका नाना प्रकारसे विचार करते हैं। शरीर, धन-वैभव जो एक क्षण पहले आकर्पक मालम पड़ते थे, वे भी विरक्त हो जानेपर काटनेको दौडते हैं । कविने इस स्थलपर मानवीय भावनाओसे आरोपित प्रकृतिके बीभत्स रूपका सुन्दर विश्लेषण किया है।
चौदहवीं सन्धिमे केवलज्ञान प्राप्तकर भगवान्ने ससारसे तत और मार्गभ्रष्ट प्राणियोंको कल्याणका मार्ग बतलाया है । इस प्रकरणमे आत्माही परमात्मा है, यही कर्ता, भोक्ता और अपने उत्थान-पतनका उत्तरदायी है, आदि बतलाया गया है । पन्द्रहवीं सन्धिमे ज्ञानका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है और सोलहवी सन्धिमे चन्द्रप्रम स्वामीका मोक्षगमन तथा सत्रहवीमें कविने आत्मपरिचय लिखा है।
वर्णनशैलीमे प्रवाह है, भाषा सानुप्रास है । कवितामे ताल, स्वर और अनेक राग-रागनियोका भी समावेश किया गया है। अनुप्रास, यमक, विरोधाभास, श्लेष, उदाहरण, रूपक, उपमा, उत्प्रेभा और अतिशयोक्ति अलंकारकी यथास्थान योजना की गयी है । निम्न पद्य दर्शनीय हैंकवल बिना जल, जल बिन सरवर, सरवर बिन पुर, पुर बिन राय । राय सचिव बिन, सचिव बिना बुध, बुध विवेक बिन शोभ न पाय ॥
इस प्रकार भाव, भाषा और शैली आदिकी रिसे यह चरित सुन्दर काव्य है।
- इस चरितके रचयिता कवि नवलशाह हैं । इसमे अन्तिम बमानचरित तीर्थंकर भगवान् महावीरका जीवनचरित विस्तार
- पूर्वक वर्णित है। इसमे सोलह अधिकार हैं। आरम्भमें वक्ता, श्रोता आदिका लक्षण बतलाया है। वर्द्धमान स्वामीके पूर्वभवोंका. वर्णन करता हुआ कवि कहता है कि पुष्कलावती देशमे पुण्डरीकिणी नगरीके वनमे पुरुरवा भील रहता था। इसने श्रावकके व्रत ग्रहण किये,