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________________ पुरातन काव्य-साहित्य : ६९ व्रतोके प्रमावसे वह मरकर सौधर्म स्वर्गमे देव हुआ और वहॉसे च्युत होकर भरतचक्रवतीके मरीचिकुमार नामका पुत्र हुआ। भगवान् आदिनायके साथ मरीचिकुमारने भी जिनदीक्षा ग्रहण की। दीक्षासे भ्रष्ट होकर इन्हें अनेक योनियोमे भ्रमण करना पडा। अनेक जन्म धारण • करनेके उपरान्त यही मरीचिकुमारका जीव कुण्डलपुर नगरमे राजा सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणीके वर्द्धमानकुमार नामका पुत्र हुआ। कुमार वर्द्धमानकी शूरवीरता, ज्ञान एव दिव्य तेजसे प्रभावित होकर ही लोगोने इनके नाम महावीर, सन्मति एव वीर रखे थे। यह आजन्म अविवाहित रहे । ३० वर्षकी अवस्थामे समारसे विरक्त हो तप करने चले गये और आत्मशोधन कर अशान्त विश्वको शान्तिका उपदेश दिया । अव महावीर भगवान् महावीर बन गये, इनका उपदेशामृत पान करनेके लिए मनुष्य ही नहीं, पशु, पक्षी, देव, दानव सभी आते थे । भगवान् महावीरने समस्त आर्यदेशेमे विहारकर जनताको कर्तव्यमार्गका उपदेश दिया। अन्तमें मोक्ष लाम किया। इस चरित-काव्यमे सभी प्रसिद्ध छन्दोका प्रयोग किया गया है। कविता साधारणतः अच्छी है । सिद्धान्त और आचारकी बातोंका निरूपण वडे विस्तारके साथ किया गया है। नख-शिख वर्णनमें भी कवि किसीसे पीछे नहीं है। महारानी प्रियकारिणीके रूप सौन्दर्यका चित्रण करता हुआ कवि कहता है अम्बुजसौ जुग पाय बनै, नख देख नखत भयौ भय भारी। नूपुरकी झनकार सुनै, हग शोर भयौ दशहू दिश मारी। कंदल थंभ वनै जुग जंध, सुचाल चले गनकी पिय प्यारी। क्षीन बनौ कटि केहरि सौ, तन दामिनी होय रही लज सारी॥ नामि निवौरियसी निकसी पढहावत पेट सुकंचन धारी। काम कपिच्छ कियौ पट अन्तर, शील सुधीर धरै अविकारी ॥
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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