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हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन
काणण- सिरि सोहइ अरुण - नव- पल्लव परिणद | नं रतंय-पावरिय महु-पिययम संवद्ध ॥ सहयारिहि मंजरि सहहि भ्रमर-समूह-सणाह | जालार व मयणानलह पसरिय-धूम-पवाह ||
अर्थात्-कोयलोके शब्दसे मुखरित वसन्त जगमे प्रविष्ट हुआ, मानो कामदेव महानृपके विजय- अह्कारको प्रकट करनेवाला योद्धा ही हो ।
सुन्दर किरणोंवाले सूर्यको उत्तर दिशामे आते देखकर मलय- समीर दक्षिण दिशा निश्वासकी तरह बहने लगा |
अरुण नव कोपोसे परिणढ कानन श्री ऐसी गोमित होती है, मानो वह रक्ताशु लपेटे हुए वासनारूपी प्रियतमसे आलिगित हो ।
भ्रमर-समूहसे युक्त आम्रमञ्जरी ऐसी जान पड़ती है, मानो मदनानलकी ज्वालासे धुंआ उठ रहा हो ।
प्रवन्ध-चिन्तामणिमें छोटी-छोटी कई कथाएँ है, इन कथाओं में आपस मे कोई सम्बन्ध नही है; अतः यह सफल प्रवन्ध-काव्य नहीं कहा
जा सकता ।
कुमारपाल प्रतिबोध कुमारपालको प्रबुद्ध करनेके लिए ५७ लघुकथाएँ दी गयी हैं । कविने सप्त व्यसन जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरा पान करना, शिकार खेलना, परस्त्रीसेवन करना, चोरी करना और वेव्या एवं काम वासना के त्याग करनेका उपदेश देते हुए अनेक छोटे-छोटे आख्यानोंको उदाहरणकै रूपमें प्रस्तुत किया है । यद्यपि प्रासङ्गिक कथाओंकी आधिकारिक कथा के साथ अन्विति है, पर प्रबन्धमें शैथिल्य है । क्रमवद्धताका भी अभाव है । कतिपय वर्णन कल्पनाकी उड़ान और भावनाकी सघनताकी दृष्टिसे सुन्दर हुए हैं। जगत्की तुच्छता और निस्सारता दिखलाते हुए मौतिक पदाथाँकी क्षणभंगुरताका मर्मस्पर्शीं निरूपण किया है।