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पुरातन काव्य - साहित्य
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प्रवन्धचिन्तामणि, सोमप्रमका कुमारपाल प्रतिबोध आदि रचनाएँ
पुरानी हिन्दी के प्रबन्ध काव्योंमे परिगणित है । यद्यपि इन ग्रन्थोंकी प्रवन्धपद्धति शिथिल और विशृंखलित है, फिर भी गैली और भाषाकी दृष्टिसे इन काव्योका विशेष महत्त्व है । प्रवन्ध चिन्तामणि भोज-प्रबन्धके ढंगकी रचना है। इसमे जैन धर्मका उद्योतन करनेवाली कई कथाओंका सग्रह किया है । कथाका आरम्भ करते हुए बताया गया है कि एक दिन विक्रमादित्य रातको नगरका परिभ्रमण करने गया और एक तेलीसे निम्न दोहेका अर्धोश सुना । दोहेका उत्तरार्द्ध सुननेकी अभिलाषासे राजा वहाँ बहुत देर तक ठहरा रहा, पर उसे निराश ही लौटना पड़ा । प्रातःकाल दरवारमे उसने तेलीको बुलाया और उससे दोहेको पूरा कराया
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अपभ्रंशके वादकी
पुरानी हिन्दीके जैन-प्रवन्ध काव्य
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अम्मणिभो संदेसडमो नारय कन्ह कहिज । जगु दालिचिहि डुब्बिड वलिबंधणह मुहिज्ज ||
अर्थात् - हे नारद, कृष्णसे हमारा सन्देश कह देना कि नगर दरिद्रतासे पीड़ित है, बलि-बन्धन (करका बोझ ) छोड़ दो।
इसमे मुञ्ज, तैलप, भोज, कुमारपाल, अभय, रावण आदि राजाओंको जैन धर्मावलम्वी मानकर आख्यान दिये गये हैं। वर्णन साहित्यकी अपेक्षा इतिहासके अधिक निकट हैं । यद्यपि वसन्तका शब्द-चित्रण साहित्यकी दृष्टिसे सुन्दर हुआ है, लेखकने कल्पनाकी उड़ान और भावनाकी तहमें प्रवेश करनेका पूरा यत्न किया है, पर सफलता कम मिली है। उदाहरण
यह कोइल-कुल-रव-हुल भुवणि वसंतु पयहु । भड्डु व मयण-महा-निवह पयदिम-विजय मरहु ॥ सूर पलोहवि कंत करु उत्तर- दिसि-आसन्तु । नीसासु व दाहिण - दिसय मलय- समीर पवत्तु ॥