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हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन
महाकवि सूरदास ने कृष्णकी बाललीलाओंका चित्रण बहुत-कुछ इसी प्रकारका किया है । नुलनाके लिए सुरदासकी कुछ पद्य-पंक्तियाँ उद्धृत की जाती हैं
कहाँ लौं वरणों सुन्दरताइ, खेलत कुँअर कनक आगन में, नैन निरख छवि छाइ । कुलहि लसति सिर स्याम सुभग अति, बहुविधि सुरंग बनाइ । मानों नव धन ऊपर राजत, मघवा धनुप चदाइ। अति सुदेश मृदु हरत चिकुर मन, मोहन मुख वगराइ ।
खंडित वचन देत पूरन सुख, भल्प अल्प जलपाइ । घुटुरन चलत रेनु तन मंडित सूरदास बलि जाइ ।
लोकजीवनके ऐसे अनेक स्वाभाविक चित्र जैन देशी भाषा प्रवन्ध कायोमे अंकित किये गये हैं, जिनसे हिन्दीकाव्य अद्यावधि अनुमाणित होता चला आ रहा है । दोहा छन्द मूलतः जैन कवियोंका है । ८-९ वीं शताब्दीमें यह ठन्द जैनामे इतना अधिक लोकप्रिय था कि इसी इन्टमें शृङ्गार, वैराग्य, नीति आदि विषयोकी फुटकर रचनाएँ विपुल परिमाणम हुई । कुछ कवियाने कनिपय छोटे-मोटे आख्यान भी दोहाम लिखे । हेमचन्द्र के व्याकरणम ऐसे अनेक दोहोका संग्रह है, निनसे जैन कवियोंकी 'अल्प शब्दां-द्वारा अधिक भाव अभिव्यक्षित करनेकी शैलीका परिनान सहजम ही हो जाता है। भावकी दृष्टिले ऐसी अनेक भावनाएँ दोहामं चित्रित हैं, जिनका पूर्ण विकास विहारीमें नाकर हुआ। यद्यपि शृङ्गार रसको बढ़ा-चढ़ा कर नहीं निरपित किया, फिर भी विरह और प्रेमकी भावनाओंकी कमी नहीं है। 1-कवि सूरदासका समय वि. सं. १५४० और पुप्पदन्तका ई.
सं. ९५९।