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पञ्चमाध्याय
प्रकीर्णक काव्य
जीवनके सूक्ष्म व्यापक सत्योंका उद्घाटन करना, मानवके प्रकृत रागद्वषोंका परिमार्जन करना एव मानवकी स्वभावगत इच्छाओ, आकाक्षाओं और प्रवृत्ति-निवृत्तियोंका सामञ्जस्य करना ही जैन प्रकीर्णक काव्योका वर्ण्य विषय है। इन कार्योंमे मानवको जड़तासे चैतन्यकी ओर, शरीरसे आत्माकी ओर, रूपसे भावकी ओर बढना ही व्येय बतलाया गया है। जीवनकी विभूति त्याग और सयम है, यह त्याग भावुकताका प्रसाद न होकर ज्ञानका परिणाम होता है। जबतक जीवनमे राग-द्वेषकी स्थिति बनी रहती है तबतक त्याग और सयमकी प्रवृत्ति आ नही सकती। राग और द्वेष ही विभिन्न आश्रय और अवलम्बन पाकर अगणित भावनाओके रूपमें परिवर्तित हो जाते है। जीवनके व्यवहार-क्षेत्रमें व्यक्तिकी विशिष्टता, समानता एव हीनताके अनुसार उक्त दोनो भावोंमें मौलिक परिवर्तन होता है। साधु और गुणवान्के प्रति राग सम्मान हो जाता है. यही समानके प्रति प्रेम एव हीनके प्रति करुणा बन जाता है । मानव राग भावके कारण ही अपनी अभीष्ट इच्छाओकी पूर्ति न होनेपर क्रोध करता है, अपनेको उच्च और वड़ा समझ कर दूसरोका तिरस्कार करता है, दूसरोंकी धन-सम्पत्ति एव ऐश्वर्य देखकर हृदयमे ईयाभाव उत्पन्न करता है तथा सुन्दर रमणियोके अवलोकनसे काम-तृष्णा उसके हृदय में जाग्रत हो जाती है।
जिस प्रकार रोगकी अवस्था और उसके निदानके मालूम हो जानेपर रोगी रोगसे निवृत्ति प्राप्त करनेका प्रयत्न करता है, उसी प्रकार प्रत्येक