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१८० हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन व्यक्ति ससाररूपी रोगका निदान और उसकी अवस्थाको जानकर उससे मुक्त होनेका प्रयास कर सकता है। संसारके दुःखोंका मूल कारण रागद्वेष है, इन्हे शास्त्रीय परिभाषामें मिथ्यात्व कहा जाता है। आत्माके अस्तित्वमें विश्वास न कर अनात्मरूप-राग-द्वेष रूप श्रद्धा करनेसे मनुष्यको स्व-परविवेक नहीं रहता है, जड़-शरीरको आत्मा समझ लेता है तथा स्त्री, पुत्र, धन, धान्य, ऐश्वर्यमें रागके कारण लित हो जाता है। इन्हे अपना समझकर इनके सद्भाव और अभावमें हर्ष-विषाद उत्पन्न करता है।
आत्मविश्वासके अभावमे ज्ञान भी मिथ्या रहता है । अतएव कषाय और असंयमसे युक्त आचरण भी मिथ्याचरण कहा जाता है । अनात्मविषयक प्रवृत्ति होनेसे इस मानवको सर्वदा कष्ट भोगना पड़ता है। इसी कारण सदाचारसे विमुख मानवको आत्ममावमें प्रतिष्ठित करना सत्साहित्यका ध्येय माना गया है। प्रकीर्णक काव्यके रचयिता जैन आचार्यों
और कवियोने मानवका परिष्कार करनेके लिए धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक आदि आदर्शोंकी सरस विवेचना की है। उन्होंने मानवको व्यष्टिक तलसे उठाकर समष्टिके तलपर प्रतिष्ठित किया है। बहिर्जगत्के सौन्दर्यकी अपेक्षा अन्वर्जगत्के सौन्दर्यका इन्होंने प्रकीर्णक काव्योंमे विशेष निरूपण किया है । यह सौन्दर्य क्षणिक आनन्दको प्रदान करनेवाला नहीं है, अपितु मानव-हृदयकी गूढतम जटिल समस्याओंका प्रत्यक्षीकरण करनेवाला है।
जो कवि मानवके अन्तर्जगत्के रहस्यको खोलकर देखता है, उसकी मानसिक पहेलियोंको सुलझाता है, वही श्रेष्ठ कविके सिंहासनपर आरूढ़ होनेका अधिकारी है। यद्यपि कुछ आलोचक काव्यके इस उपयोगितावादी दृष्टिकोणको स्वीकार नहीं करते हैं तथा आचारात्मक वर्णनोंकी प्रधानता होनेसे दूसरे काव्य साहित्यसे पृथक् ही कर देना चाहते हैं; परन्तु चे सम्भवतः इसे भुला देते हैं कि जीवनमे जो प्रमुख इच्छाएँ और कामनाएँ हैं, साहित्यमे वे ही स्थायी भाव हैं। जो साहित्यकार