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________________ आध्यात्मिक रूपक काव्य ११७ विद्यमान है, जो हृदयकलिका विकसित करने में पूर्ण समर्थ है। अतएव भाव और भाषा दोनो ही दृष्टियोसे यह रचना उत्कृष्ट कही जा सकती है। यह एक सरस रचना है। इसमे कवि बनारसीदासने भौतिक जीवनको पशु-जीवन बतलाते हुए मानव बननेका मार्ग बतलाया है । मानव जीवनतेहादिया का उच्च आदर्श प्रतिपादित होनेके कारण यह वर्ग " विशेषकी वस्तु न होकर सर्व साधारणकी सम्पत्ति है। इसमे साहित्यके उपयोगवादी दृष्टिकोणके अनुसार जीवनमे 'अशिव'का परिष्कार कर 'शिव'को प्राप्त करनेका सकेत किया गया है | क्षणमगुर शरीरके मोह और ममताको छोड़ आत्माकी अमरताको प्राप्त करनेका प्रयत्न ही साध्य हो सकता है। समस्त पार्थिव तृतियो के साधन रहते हुए भी मन एक अभावका अनुभव करता है; सारी सुख-सुविधाओके रहने पर भी मनकी तृप्ति नहीं होती है, यह अभाव राजनैतिक या सामाजिक नहीं; प्रत्युत आव्यात्मिक होता है। इस ग्रन्थमे कविने जीवनमे इसी अभावकी पूर्णताकी आवश्यकता बतलायी है। आध्यात्मिक संवेदनशील सरस सोतसे हमारी समस्त आन्तरिक पीडाएँ दूर हो जाती है। यह सरस रचना पाठकको साधारण मानव-जीवनके धरातलसे ऊपर उठाकर जीवनका वास्तविक आनन्द देती है। कवि जीवन-परिष्कारके लिए विधानका प्रतिपादन करता हुआ कहता है कि जिस प्रकार लुटेरे, बदमाश, चोर आदि देशमे उपद्रव मचाते है, उसी प्रकार तेरह काठिया आत्मामे उपद्रव-विकृति उत्पन्न करते हैं। जुआ, आलस, शोक, भय, कुकथा, कौतुक, कोप, कृपणबुद्धि, अज्ञानता, भ्रम, निद्रा, मद और मोह ये तेरह आत्मामें विकार उत्पन्न करते हैं। विभाव परिणतिके कारण शुद्ध, बुद्ध और निरंजन आत्म-तत्त्वमें परपदार्थोके संयोगसे विकृति उत्पन्न हो जाती है। जब तक आत्मामे विभावपरिणति पर-पदार्थ रूप प्रवृत्ति, करनेकी क्षमता रहती है तब तक उक्त
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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