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________________ १४६ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन बोलत विचारत न बोले न विचारे कछु, भेख को न भाजन पै भेख को धरत है। ऐसो प्रभु चेतन अचेतनको संगतिसों, उलट-पलट नटवानी सी करत है । जिस प्रकार नदीकी एक ही धारामें नाना स्त्रोतोका नल आकर मिलता है तथा जिस स्थानपर पापाणशिलाएँ रहती हैं, वहाँ धारा मुड़कर जाती है ; जहाँ ककड़ रहते हैं, यहॉ झाग देती हुई आगे बढ़ती है ; जहाँ हवाका जोर पड़ता है, वहाँ चचल तरंग उठती है और जहाँकी भूमि नीची होती है, वहाँ मॅबरें पड़ती है। इसी प्रकार आत्मामें पुद्गलअचेतनके अनन्त रनोंके कारण अनेक प्रकारके विभव उत्पन्न होते है। आत्माकी ये लीलाएँ नाटकके पात्रोकी लीलाओमे कम नहीं होती। संसाररुपी रंगस्थलीपर आत्मा नट बनकर नाना तरहकी लीलाएँ किया करती है । नायक आत्मा है और प्रतिनायक पुगल-जड़ पदार्थ । कविने आत्माकी इस अनेकरूपताका कितना स्वाभाविक चित्रण किया है जसे महीमण्डलम नदीका प्रवाह एक, ताहीने अनेक भाँति नीरी दरनि है। पाथरके नोर तहाँ धारकी मरोर होत, कांकरको खानि वहाँ मागको अरनि है। पानी अकोर वहाँ चंचल तरंग उठे, भूमिकी निचानि वहाँ मौरकी परनि है। तेसो एक आत्मा अनंत रस पुद्गल, दोहके संयोगविभावकी भरनि है ॥ नाटक समयसारकी मापा सरस, मधुर और प्रसादगुणपूर्ण है। शब्द चयन, वाक्य-विन्यास और पदावलियोंके संगठनम सतर्कता और सार्थकताका ध्यान सर्वत्र रखा गया है। इसमें मलयानिलका स्पर्श
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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