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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन मक्ति करनेसे आत्मिक विकास नहीं होता है। जैनधर्मकी उपासना साधनाभय है, दीनतामरी याचना या खुशामद नहीं है ।शुद्धात्मानुभूतिके गौरवसे ओत-प्रोत है; दीनता, क्षुद्रता और स्वार्थपरताको इसमे तनिक भी स्थान प्राप्त नहीं है। नामस्मरण और भगवद्भननको जैन साहित्यकारोने शुमपरिणति रूप मानते हुए भी शुद्ध परिणविका प्रबल साधन माना है। उक्त टोनो साधन थाल्माको ध्यान या समाधिकी ओर प्रेरित करते है। जो केवल शब्दोच्चारण कर जाप कर लेनेमें अपने कर्तव्यकी इतिश्री मानते है, वे वस्तुतः अन्धेरैम है । हार्दिक भावनाओका उपयोग-प्रभु-गुणाका ध्यान रहना परमावश्यक है । अतः कवीरके नामस्मरण-विषयक पद जैन पदोसे समता रखते हैं। कबीरने भी शब्दोचारणकी अपेक्षा भावको प्रधानता दी है। संसारके बाह्य द्वन्दॉम सलग्न रहनेपर भी साधक आराध्यके स्मरणसे अपने स्वरूपको उपलब्ध करनेमें समर्थ होता है। धीरे-धीरे वह 'सोऽई का अनुभव करने लगता है और आगे चलकर "शुद्धोऽहं, बुद्धोऽई, निरंजनोऽद्द की अनुभूति करता हुआ अपनेमें विचरण करता है। कबीए कहता है
भजु मन जीवन नाम सबेरा । सुन्दर देह देख जिन भूलो, मपट लेत नस थान बटेस। यह देही को गरव न कीजै, उड़ पंछी बस लेत बसेरा या नगरी में रहन म पैहो, कोह रहि बाय न दूख धनेरा। कह 'कबीर' सुनो भाई साधो, मानुप ननम न पहो फेरा II
नाम सुमिर पछतायेगा। पापी जिपर लोम करत है, मान काल उठि जायेगा I लालच लागी जनम गँवाया, माया भरम भुलायेगा । धन जोबन का गरव न कीजे, कागद ज्यों गलि जायेगा।