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आध्यात्मिक रूपक काव्य
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पाती । शरीर और मन दोनो ही अस्वस्थ रहते हैं तथा कुत्सित लालसाऍ जीवन रसको सुखा देती है । कविने प्रस्तुत रचनामे ससारको समुद्रकी उपमा देकर उसका विश्लेषण मनोहर ढगसे किया है तथा आत्मोद्धार करनेके सरल और अनुभूत उपाय बतलाये गये है । उपमाऍ अत्यन्त चुभती हुई सरल और सरस है । कवि कहता है कि कर्मरूपी महासमुद्रमे कोष मान-माया-लोभ रूप विकारोका जल भरा है और विपयवासनाओंकी नाना तरगे अहर्निश उठती रहती हैं। तृष्णा-रूपी प्रवल वाडवाग्नि इसमें नाना प्रकारसे विकृति उत्पन्न करती रहती है और चारो ओर ममतात्पी गुरुगर्जनाऍ होती रहती है। इस विकराल समुद्रमे भ्रम, मिथ्याज्ञान और कदाचारस्पी भँवर उठती रहती हैं । समुद्रकी भीषणता के कारण मनरुपी जहाज चारों ओर घूमता है, कर्मके उदयरूपी पवनके जोरसे वह कभी गिरता है, कभी डगमगाता है, कभी डूबता है और कभी उतराता है ।
जैसे समुद्र ऊपरसे सपाट दिखलायी पडता है, पर कहीं गहरा होता है और कही चंचल भँवरोमें डाल देता है, उसी प्रकार ससार भी ऊपर से सरल दिखलायी पड़ता है, किन्तु नाना प्रकारके प्रपचोके कारण गहरा है और मोहरूपी भवरोंमें फॅसानेवाला है । इस ससारमे समुद्रकी बड़वाग्नि के समान माया तथा तृष्णाकी ज्वाला जला करती है, जिससे ससारी जीव अहर्निश झुलसते रहते हैं ।
ससार अग्निके समान भी है, जैसे अग्नि ताप उत्पन्न करती है, उस प्रकार यह भी त्रिविध ताप - दैहिक, दैविक और भौतिक संतापोको उत्पन्न करता है । अग्नि जिस प्रकार ईंधन डालनेसे उत्तरोत्तर प्रज्वलित होती है, उसी प्रकार अधिकाधिक परिग्रह बढ़ानेसे सासारिक आकाक्षाएँ बढ़ती चली जाती हैं । यह संसार अन्धकारके तुल्य भी है, क्योकि प्राणीके सम्यग्ज्ञानको लुप्तकर उसे विवेकहीन बना देता है । मिध्यात्वके सवर्द्धन