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________________ पर्दोका तुलनात्मक विवेचन शुद्धात्माओंकी उपासना या भक्तिका आलम्बन पाकर मानवका चंचल चित्त क्षण भर के लिए स्थिर हो जाता है, आलम्बनके गुणका स्मरण कर अपने भीतर भी उन्हीं गुणोको विकसित करनेकी प्रेरणा पाता है तथा उनके गुणोंसे अनुप्राणित हो मिथ्या परिणतिको दूर करने के पुरुषार्थमे रत हो जाता है। जैन दर्शनमें शुद्ध आत्माका नाम ही परमात्मा है; प्रत्येक जीवात्मा कर्मबन्धनोके विलग हो जाने पर परमात्मा बन जाती है । अतः अपने उत्थान और पतनका दायित्व स्वय अपना है । अपने कार्योंसे ही यह जीव बँधता है और अपने कार्योंसे ही बन्धनमुक्त होता है । १०५ कमका कर्त्ता और भोक्ता भी यह जीव ही है । अपने किये कम का फल इसको स्वयं भोगना पडता है। ईश्वर या परमात्मा किसी भी प्राणीको किसी भी प्रकारका फल नहीं देता है । इस प्रकारके ईश्वरकी उपासना करनेसे साधककी परिणति स्वतः शुद्ध हो जाती है, जिससे अभ्युदयकी प्राप्ति होती है । अतः जैन दर्शनानुसार उपासना या भक्ति अकिंचन या नैराग्यको भावना नही है । साधक उन शुद्धात्माओकी, जिन्होंने आत्म-संयम, तपस्या, योग, ध्यान प्रभृतिके द्वारा कर्म-बन्धनको नष्टकर जीवन्मुक्त अवस्थाको प्राप्त कर लिया है । पूर्ण ज्ञान ज्योतिके प्रज्वलित हो जानेसे जिन्होंने ससारके समस्त पदार्थों एव उनके समस्त गुण और अवस्थाओंको भली भाँति अवगत कर लिया है, उपासना करता है। इस प्रकारकी उपासना या भक्तिसे आराधककी आत्मा स्वच्छ या निर्मल होती है । जैन-पद-रचयिताओंने इसी भक्तिभावनासे प्रेरणा प्राप्त कर भावात्मक 'पदोकी रचना की है । यद्यपि कतिपय पद, जिन्हें प्रभाती या बधाईकी आपकी भक्ति करनेवाला श्रीसमृद्धिको और निन्दा करनेवाला पापवृद्धि को प्राह होता है, यही आश्चर्यकी बात है । -स्तुतिविद्या ।
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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