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१०४ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन जगत्के प्रभावका परिणाम है। सूक्ष्म भावजगत्में तो अनेकताका कोई स्थान ही नहीं। इसलिए यह आवश्यक है कि हम विभिन्न देश और कालके तथा विभिन्न दार्शनिक विचारों से प्रभावित गीतकारोंके मौलिक तत्त्वों तथा उनकी कलात्मक विशेषताओंका तुलनात्मक विचार करे।
हम देख चुके है कि जनपद-साहित्यमे सगीतमय भावात्मक आत्माभिव्यक्ति के साथ दार्शनिक विचारोकी अभिव्यंजना भी अन्तर्निहित है । यद्यपि पदोका अन्तरङ्ग-वस्तुतत्त्व हृदयके अनुरूप ही सुकोमल, तरल
और भावनापूर्ण है। पर मस्तिष्ककी ऊहापोही और दार्शनिक विचारोंकी गहनता भी है। जैन-पद-रचयिताओंकी प्रेरणाका स्रोत जिनेश्वर भक्ति या आत्मरति है। जैन दर्शनमें भक्तिका रूप दास्य, सख्य और माधुर्य भावकी भक्तिसे भिन्न है, अतः कोई भी साधक अनेक चिकनी-चुपड़ी प्रशसात्मक बातो-द्वारा वीतरागी प्रभुको प्रसन्न कर उनकी प्रसन्नता-द्वारा अपने किसी लौकिक या अलौकिक कार्यको सिद्ध करनेका उद्देश्य नही रखता है और न परम वीतरागी देवके साथ यह घटित ही हो सकता है, क्योंकि सच्चिदानन्दमय प्रभुमे रागागका अभाव होनेसे पूजा, स्तुति या भक्ति द्वारा प्रसन्नताका सचार होना असम्भव है; अतएव वह भक्ति करनेवालोंको कुछ देता, दिलाता नहीं है। इसी तरह द्वैपाशका अभाव होनेसे वीतरागी किसीकी निन्दासे अप्रसन्न या कुपित भी नहीं होते है और न दण्ड देने, दिलानेकी ही कोई व्यवस्था निर्धारित करते है। निन्दा और स्तुति, भक्ति और ईयां उनके लिए समान है, वह दोनोके प्रति उदासीन हैं। परन्तु विचित्रता यह है कि स्तुति और निन्दा करनेवाला स्वतः अभ्युदय या दण्डको प्राप्त कर लेता है ।।
१-सुहृत्वयि श्रीसुभगत्वमश्नुते, द्विपस्वयि प्रत्यय-वत्प्रलीयते। भवानुदासीनतमस्तयोरपि, प्रभो! परं चित्रमिदं तवेहितम् ॥१९॥
अर्थ-हे भगवन् ! आपका मित्रसे न अनुराग है और न शत्रुसे द्वेष है; अतः आप किसीसे प्रसन्न और मप्रसन्न नहीं होते है। फिर भी