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हिन्दी-जैन-गीतिकाव्य
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भव आताप वुझावतको है, महामेघ जलधार ॥ निशदिन० ॥ जिनको भगति सहित नित सुरपत, पूजत अष्ट प्रकार निशदिन०॥ जिनको विरद वेदविद वरनत, दारुण दुख-हरतार ॥ निशदिन० ॥ भविक वृन्दकी विया निवारो, अपनी ओर निहार ॥ निशदिन० ॥
नीति-विषयक पदो और ज्ञानोपदेशक पदोमे कविने जैनागमके सिद्धान्तोंका प्रतिपादन करते हुए नीति और जानकी वाते बतायी है । यद्यपि वर्णनकी प्रणाली अत्यन्त सरल है, भाषामे माधुर्य गुण है।
धन धन श्री गुरु दीन दयाल ॥ टेक० ॥ परम दिगम्बर सेवाधारी, जगजीवन प्रतिपाल । मूल अठाइस चौरासी लख, उत्तर गुण मनिभाल ॥ धन० ॥ देह भोग भयसो विरकत नित, परिसह सहत त्रिकाल ॥ धन० ॥ शुद्ध उपभोग जोग सुदमंडित, चाखत सुरस रसाल ॥ धन० ॥ X X X
X सेठ सुजन बर निधि भरी, दुख द्वन्द विदारे।
कवि वृन्दावनकी मापा पर पूर्वी भाषाका प्रभाव है । सुकुमार शब्दावलीमे स्वरकी साधना और तन्मयताका व्यकारी सगीत है।
पदोंका तुलनात्मक विवेचन अखण्ड सौन्दर्यात्मक सत्यके भणिक पर्णमात्रसे मानव-हृदय परिस्पन्दित हो भावना-लहरियोसे उद्वेलित होने लगता है । इसी हृदयालोडनका परिणाम गीति-काव्य है, जिसमें संगीतका माध्यम सर्व प्रधान स्थान रखता है। देश, काल और व्यक्तिकी सीमित परिधिसे आवेष्टित हो आन्तरिक सगीतका यह व्यक्तरूप अनेक रूप धारण कर सकता है। परन्तु प्ररणाका प्रधान उत्स अखिल सत्य वास्तवमें अखण्ड और एक है। अतः बाह्य रूपरेखामे महान अन्तर होते हुए भी यदि विभिन्न गीतिकारोने एक ही मौलिक तत्व व्यक्त किये हों तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं । जो कुछ विभिन्नता मिलती है वह तो स्थूल