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पुरातन काव्य-साहित्य
मी नही आयी है। इसके रचयिता कवि महानन्द है । वसन्तका चित्रण करता हुआ कवि कहता है
मधुकर करई गुंजारव मार विकार वहति । कोयल करई पटहूड़ा इकट्ठा मेलवा कन्त ॥ मलयाचल थी चलकिरा पुलकिड पवन प्रचण्ड |
मदन महानृप पाझs विरहीनिं सिर दंड ॥
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'घुसीता सतु' कवि भगवतीदासका एक सुन्दर खण्डकाव्य है । इसमे कविने सीताके सतीत्वकी झॉकी दिखायी है। बारह मासीमं मन्दोदरी - सीताके प्रश्नोत्तरके रुपमे रावण और मन्दोदरीकी चित्तवृत्तिका नुन्दर विलेपण किया गया है । मानसिक घात-प्रतिघातांकी तस्वीर कितनी चतुराईसे खींची गयी है, यह निम्न उदाहरणसे स्पष्ट है
तब बोलइ मन्दोदरी रानी । सखि अपाद घनघट घहरानी ॥ पीय गये ते फिर घर भवा । पामर नर नित मंदिर छाया ॥ लवहि पपीहे दादुर मोरा । हियरा उमग धरत नहिं धीरा ॥ बादर उमहि रहे चौपासा । तिय पिय विनु लिहिं उरुन उसासा । नन्ही वृन्द झरत झर लावा । पावस नभ आगसु दरसावा ॥ दामिनि दमकत निशि अधियारी । विरहिनि काम वान उरमारी। भुगवहि भोगु सुनहि सिख मोरी । जानति काहे भई मति चौरी ॥ मदन रसायनु हुइ जग सारू । संजम नेमु कथन विवहारू ॥
जब लग हंस शरीर महिं, तब लग कीचड़ भोगु । राज तजहिं भिक्षा भमहिं, इठ भूला सबु लोनु ॥ कविवर ब्रह्मगुलारने १७वी छातीमे इस काव्यव रचना की है। इसकी कथावस्तु रोचक औ
कृपणजगावन काव्य
सरस है ।
राजगृह नगरमं वसुमति राजा गासन करता था । मी नगर