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पुरातन काव्य-साहित्य
हैं । घटनाओकी कुशल संघटनकी ओर प्रत्येक लेखक बहुत सावधान रहा है, जिससे चरितीमे रंजन-शक्तिकी भी कमी नहीं आने पायी है। जीवन
और जगत्की लोकरजनकारिणी अमिव्यञ्जना करनेमें कथाकाव्यके निर्माताओको पर्याप्त सफलता मिली है। इन्होने भावोन्मेप और मानव-मनरंजिनी शक्तिकी अभिव्यक्ति इतनी चतुराईसे की है, जिससे रसोद्रेकमे तनिक भी कमी नहीं आने पायी है।
वस्तु और उद्देश्यकी दृष्टिसे इन ग्रन्थोमे शान्तरस प्रधान है परन्तु इसके एक ओर करुण और दूसरी ओर वीररसकी धारा भी कल-कल निनाद करती हुई अबाध गतिसे बहती है। कहीं-कहीं विप्रलम्भ शृगार भी प्रबल वेगके साथ कगार तोडता हुआ-सा दृष्टिगोचर होता है, परन्तु शान्तरसके सामने उसे भी हारकर सिर झुका लेना पड़ता है। व्यग, विनोट और हास्यकी भी कमी इन ग्रन्योमे नही है।
सामन्तकालीन अन्तःपुरोकी विलासिताका चित्रण भी कवियोने विषयकषायोके त्यागके लिए ही किया है। आदिसे अन्त तक स्वस्थ बौद्धिक दृष्टिकोण (Intellectual vision) उपस्थित किया गया है। निस्सग सरोवरमे मजन करने के लिए रमणियोके विलास वैभवका अतिरेक प्रस्तुत किया गया है । झूठा आदर्श जीवन के लिए मगलपद नहीं हो सकता, यह चरित-काव्योंसे स्पष्ट है । जैन कवियोने भावोंकी अतल गहराईमे उतरकर इन चरितोंमे भी अमूर्त भावनाओको मूर्तरूप प्रदान करनेका प्रयास किया है । पाठकोको जिज्ञासाको उत्तरोत्तर तीव्र करनेके लिए कथाओंको गतिशीलता दी गयी है। अतः ये कथाएँ व्रत या चरित्र पालनेके लिए भावोतेजक (thought Provocation) है।
काव्यकी दृष्टि से इनमें कविता अलंकृत नही की गयी है। शब्दचयन और वाल्ययोजना भी चमत्कारपूर्ण ढगसे नहीं हुई है तथा महाकाव्य या खण्डकाव्यकै विधानका अनुसरण मी इनमें नहीं हुआ है। इसी कमीके